मंगळवार, १९ नोव्हेंबर, २०१९

अंग्रज़ों को खदेडनेवाली 1857 की महान क्रांतिकारी नायिका वीरांगना झलकारी बाई कोली

देश के लिए मर-मिटने वाली झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम हर किसी के दिल में बसा है। कोई अगर भुलाना भी चाहे तब भी भारत माँ की इस बेटी को नहीं भुला सकता। लेकिन रानी लक्ष्मी बाई के ही साथ देश की एक और बेटी थी, जिसके सर पर न रानी का ताज था न ही सत्ता पर फिर भी अपनी मिट्टी के लिए वह जी-जान से लड़ी और इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ गयी।

वह वीरांगना, जिसने न केवल 1857 की क्रांति में भाग लिया बल्कि अपने देशवासियों और अपनी रानी की रक्षा के लिए अपने प्राणों की भी परवाह नहीं की!

हम बात कर रहे हैं झांसी की रानी, लक्ष्मी बाई की परछाई बन अंग्रेजों से लोहा लेने वाली, झलकारी बाई की।

    ग्वालियर में वीर झलकारी बाई की प्रतिमा (विकिपीडिया)

झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को उत्तर प्रदेश के झांसी के पास के भोजला गाँव में एक कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी।

उनके पिता ने उन्हें एक पुत्र की तरह पाला। उन्हें घुड़सवारी, तीर चलाना, तलवार बाजी करने जैसे सभी युद्ध कौशल सिकाये। झलकारी ने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी, पर फिर भी वे किसी भी कुशल और अनुभवी योद्धा से कम नहीं थी। बताया जाता है कि रानी लक्ष्मी बाई की ही तरह उनकी बहादुरी के चर्चे भी बचपन से ही होने लगे थे।

मेघवंशी समाज में जन्मी, झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं की देख-रेख और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में झलकारी की मुठभेड़ एक बाघ से हो गई थी और उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से उसे मार गिराया। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया, तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था।

     झलकारी बाई की प्रतीकात्मक पेंटिंग


झलकारी जितनी बहादुर थी, उतने ही बहादुर सैनिक से उनका विवाह हुआ। यह वीर सैनिक था पूरन कोरी, जो झांसी की गंगाधर राव सेना में अपनी बहादुरी के लिए प्रसिद्द था।

विवाह के बाद जब झलकारी झांसी आई तो एक बार गौरी पूजा के अवसर पर गाँव की अन्य महिलाओं के साथ, वह भी महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गयीं। वहाँ जब रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें देखा तो वह दंग रह गयी। झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही दिखतीं थीं। साथ ही जब रानी ने झलकारी की बहादुरी के किस्से सुने तो उनसे इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने झलकारी को तुरंत ही दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दे दिया।

झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया। पहले से ही इन कलाओं में कौशल झलकारी इतनी पारंगत हो गयी कि जल्द ही उन्हें दुर्गा सेना का सेनापति बना दिया गया।

केवल सेना में ही नहीं बल्कि बहुत बार झलकारी ने व्यक्तिगत तौर पर भी रानी लक्ष्मी बाई का साथ दिया। कई बार उन्होंने रानी की अनुपस्थिति में अंग्रेजों को चकमा दिया।

हमशक्ल होने के कारण कोई भी पहचान नहीं पाता था कि कौन रानी लक्ष्मी बाई है और कौन झलकारी बाई।

         युद्ध के दौरान झलकारी बाई

1857 के विद्रोह के समय, जनरल ह्यूरोज ने अपनी विशाल सेना के साथ 23 मार्च 1858 को झाँसी पर आक्रमण किया। रानी ने वीरतापूर्वक अपने सैन्य दल से उस विशाल सेना का सामना किया। रानी कालपी में पेशवा द्वारा सहायता की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन उन्हें कोई सहायता नही मिल सकी, क्योंकि तात्याँ टोपे जनरल ह्युरोज से पराजित हो चुके थे।

जल्द ही अंग्रेजी फ़ौज झाँसी में घुस गयी और रानी अपने लोगों को बचाने के लिए जी-जान से लड़ने लगी। ऐसे में झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने के लिये खुद को रानी बताते हुए लड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने पूरी अंग्रेजी सेना को भ्रम में रखा ताकि रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित बाहर निकल सकें।

एक बुन्देलखंडी कथा के अनुसार रानी लक्ष्मी बाई का वेश धर झलकारी बाई किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज के शिविर में उससे मिलने पहुँची। ब्रिटिश शिविर में पहुँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल रोज़ से मिलना चाहती है। रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है।

      झलकारी बाई के जीवन पर किताब

पर यह झलकारी की रणनीति थी, ताकि वे अंग्रेजों को उलझाए रखें और रानी लक्ष्मी बाई को ताकत जुटाने के लिए और समय मिल जाये।

जनरल ह्यूरोज़ (जो उन्हें रानी ही समझ रहा था) ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा, चाहे मुझे फाँसी दे दो। झलकारी के इसी साहस और नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर जनरल ह्यूरोज़ ने कहा था,

“यदि भारत की एक प्रतिशत महिलायें भी उसके जैसी हो जायें, तो ब्रिटिश सरकार को जल्द ही भारत छोड़ना होगा।”

कुछ लोगों का कहना हैं कि युद्ध के बाद उन्हें छोड़ दिया गया था और फिर उनकी मृत्यु 1890 में हुई। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी बाई को युद्ध के दौरान ‎4 अप्रैल 1858 को वीरगति प्राप्त हुई। उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेजों को पता चला कि जिस वीरांगना ने उन्हें कई दिनों तक युद्ध में घेरकर रखा था, वह रानी लक्ष्मी बाई नहीं बल्कि उनकी हमशक्ल झलकारी बाई थी।

      स्त्रोत: कार्टूनिस्ट लोकेेशपूूूजाउकेे 

झलकारी बाई का उल्लेख कई क्षेत्रीय लेखकों द्वारा अपनी रचनाओं में किया गया है!

कवि मैथिलीशरण गुप्त ने उनके शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि

“जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।”

      झलकारी बाई के सम्मान में पोस्टल स्टैम्प

झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है। उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर (राजस्थान) में बना है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ में एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है। आज भी झलकारी बाई की पुण्यतिथि को कोली समाज द्वारा शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता हैं| इसके अलावा पुरातत्व विभाग द्वारा झाँसी के पंचमहल म्यूजियम में झलकारी बाई से जुड़ी वस्तुएँ रखी गई हैं| झलकारी बाई की एक प्रतिमा समाधि-स्थल के रूप में भोपाल के गुरु तेगबहादुर कॉम्प्लेक्स में स्थापित की गयी हैं, जिसका अनावरण भारत के मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कौविंद द्वारा 10 नवम्बर 2017 को किया गया था|

इसे विडंबना ही कह लीजिये कि देश के लिए अपने प्राणों की भेंट चढ़ा देने वाली भारत की इस बेटी बाई को इतिहास में बहुत अधिक स्थान नहीं मिला। पर उनके सम्मान में भारत सरकार ने उनके नाम का पोस्ट और टेलीग्राम स्टेम्प जारी किया, साथ ही भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में, झाँसी के किले में झलकारी बाई का भी उल्लेख किया है।
भारत की सम्पूर्ण आज़ादी के सपने को पूरा करने के लिए अपना सर्वोच्च न्योछावर करने वाली वीरांगना झलकारी बाई का देश सदैव ऋणी रहेगा !

 संदर्भ: 

- 1857 की क्रांतिकारी झलकारी बाई

- आदिवासी अर्थात मूलनिवासी महानायक

संकलन : सुशिल म. कुवर

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रविवार, २० ऑक्टोबर, २०१९

कोमारम भीम – आदिवासी नायक जिसने दिया ‘जल जंगल जमीन’ का नारा

“कोमारम भीम” – आदिवासी दिवस या अन्य महत्वपूर्ण आदिवासी समारोहों (मुख्य रूप से मध्य भारत) में सामान्यतः हम यह नाम नहीं सुनते, न ही यह चित्र पहचान में आता है। यह नाम दुर्लभ रूप में ही बिरसा मुंडा, बाबूराव शेडमाके, सिद्दू कान्हू जैसे आदिवासी वीरों और नायकों के साथ लिया जाता है। जबकि आदिवासी स्वायत्तता के संघर्ष में कोमरम भीम का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जिसके लिए वे शहीद भी हुए। किन्तु उनकी पहचान मुख्य रूप से केवल तेलंगाना/आंध्र प्रदेश की सीमाओं तक ही सीमित रही है। इसका एक कारण यह भी है कि उन पर लिखे ज्यादातर ऐतिहासिक लेख तेलुगु भाषा में है और अब तक उनका अनुवाद बहुत सीमित रहा है। ज़ाहिर है कि उनके इतिहास को भी बाकि आदिवासी इतिहासों की तरह किताबों के पन्नों से मिटा दिया गया है। बहुत ही कम लोगों को यह बात पता है कि, ‘जल जंगल जमीन’ का नारा सबसे पहले कोमरम भीम ने 1940 में दिया था। निजाम के विरूद्ध उनके आंदोलन में उन्होंने तर्क दिया कि आदिवासियों को जंगल के सभी संसाधनों पर पूर्ण अधिकार दिया जाना चाहिए।

कोमरम भीम गोंड (कोइतुर) समाज से थे और उनका जन्म संकेपल्ली, आदिलाबाद में 1900 इसवीं में हुआ था। आदिलाबाद जिला तेलंगाना की उत्तर दिशा में है और महाराष्ट्र के साथ सीमा बनता है। यह जगह गोंड समाज की महान नायिका जंगो रायतार का जन्म स्थल भी है, जहाँ से उन्होंने कोइतुर समाज की रुढ़िवादी कुरीतियों के खिलाफ आन्दोलन छेड़ा और ‘रायतार’ नाम से प्रसिद्द हुईं। इस क्षेत्र में मुख्य रूप से गोंड समाज बसा हुआ है और यह पहले चांदा (चंद्रपुर, महाराष्ट्र) और बल्लालपुर के गोंड साम्राज्य के संप्रभुता के अधीन था।

भीम का बचपन बाहरी दुनिया से परे बीता, उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की और अपने समाज की कठिनाइयों और अनुभवों को देखते बड़े हुए। मैपति अरुण कुमार अपनी किताब ‘आदिवासी जीवना विद्धवंसम’ में लिखते हैं – भीम, जंगलात पुलिस (फ़ॉरेस्ट गार्ड), व्यवसायियों और ज़मीनदारों द्वारा गोंड और कोलाम आदिवासियों पर हो रहे शोषण को देखते हुए बड़े हुए। जीवन यापन के लिए वे एक स्थान से दूसरे स्थान भटकते और इस तरह खुद को व्यापारियों और अधिकारियों के शोषण और जबरन वसूली से भी खुद को बचाते। ‘पोडू’ खेती की फसल को निज़ाम के अधिकारी ले जाया करते थे और तर्क देते थे कि ये उनकी जमीन है। अवैध रूप से पेड़ों को काटने के इल्ज़ाम में वे आदिवासी बच्चों की उंगलियाँ तक काट देते थे। टैक्स की जबरन वसूली की जाती थी, अन्यथा फर्जी मुकदमे दायर कर दिए जाते थे। खेती के बाद हाथ में कुछ भी नहीं बचने पर लोग गाँव से पलायन करते लगे। इन परिस्थितियों में, आदिवासियों के अधिकार के लिए लड़ने के कारण फारेस्ट अधिकारियों ने भीम के पिता की हत्या कर दी। अपने पिता की हत्या के बाद भीम क्रोधित हुव, इसके बाद उनका परिवार संकेपल्ली से सरदारपुर चला गया।

1940 में अक्टूबर के महीने की बात है, एक दिन पटवारी लक्ष्मण राव निज़ाम पट्टादार सिद्दीकी अन्य 10 लोगों के साथ गाँव में आये और लोगों को गालियाँ देने लगे व खेती के बाद जबरन टैक्स वसूली के लिए परेशान करने लगे। लोगों ने इसका विरोध किया और इस संघर्ष में कोमरम भीम के हाथों सिद्दीकी की मौत हो गयी।

इस घटना के बाद भीम अपने साथी कोंडल के साथ पैदल चलते हुए चंद्रपुर चले गए। वहां एक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक – ‘विटोबा’ ने उनकी मदद की और दोनों को अपने साथ ले गए। विटोबा उस समय निज़ाम और अंग्रेजों के खिलाफ एक पत्रिका चला रहे थे। विटोबा के साथ रहकर भीम ने अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू सीखी। कुछ समय बाद, पुलिस ने विटोबा को गिरफ्तार कर लिया और प्रेस को बंद कर दिया। उसके बाद भीम मंचरियल (तेलंगाना) रेलवे स्टेशन में मिले एक युवक के साथ चाय बागान में काम करने के लिए असम चले गए। वहां उन्होंने साढ़े चार वर्षों तक काम किया और कार्यरत होते हुए चाय बागान के मजदूरों के अधिकारों के लिए मालिकों के खिलाफ विरोध भी किया। इस संघर्ष के दौरान भीम गिरफ्तार कर लिए गए। चार दिनों के बाद वे जेल से निकलने में कामयाब हुए और मालगाड़ी में सवार होकर बल्लारशाह (चंद्रपुर के पास एक जगह) स्टेशन पहुंचे।  

असम में रहने के दौरान उन्होंने अल्लूरी सीतारामराजू के बारे में सुना था, जो कि (आंध्र प्रदेश) में आदिवासियों के संघर्ष का नेत्रित्व कर रहे थे। उन्होंने रामजी गोंड से भी आदर्श लिया जिन्होंने आदिलाबाद में निज़ाम के अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठायी थी। लौटने के बाद उन्होंने आदिवासियों के भविष्य के संघर्ष की योजना बनानी और लोगों को संगठित करना शुरू कर दिया।

वर्तमान तेलंगाना पहले निज़ाम के हैदराबाद राज्य का हिस्सा था। इस पर अफजलशाही वंश के नवाबों ने शासन किया, जिसे आज़ादी के बाद 1948 में भारतीय संघ में सम्मिलित कर लिया गया। निज़ाम के शासनकाल के दौरान असह्य टैक्स लगाये जाते थे और आदिवासी समाज बड़े पैमाने पर जमीनदारों के शोषण और अत्याचार का शिकार था।  अपने ऊपर चल रहे इन अत्याचारों के बीच, भीम ने निज़ाम सरकार के खिलाफ वृहद् आन्दोलन की शुरुवात की और उनकी सेना के खिलाफ गोरिल्ला वारफेयर (युद्ध) की तकनीक को अपनाया। जोड़ेघाट को अपने संघर्ष का केंद्र बनाते हुए उन्होंने 1928 से 1940 तक गोरिल्ला युद्ध जारी रखा।

लौटने के बाद वे अपनी माँ और भाई सोमू के साथ काकनघाट चले गए। वहां उन्होंने लच्छू पटेल के साथ काम किया जो की देवदम गाँव के मुखिया थे। लच्छू ने भीम के शादी की जिम्मेदारी भी ली और उनका विवाह सोम बाई से करवाया।  भीम ने लच्छू के जमीन से सम्बंधित मुकदमे को असिफाबाद के अमीनसाब के सामने रखने में मदद की। इस घटना ने भीम को आस पड़ोस के गाँव में लोकप्रिय बना दिया। कुछ समय बाद भीम अपने परिवार के साथ भाबेझारी चले गए और खेती के लिए जंगल की जमीन को साफ़ किया। पटवारी, जंगलात, चौकीदार फिर से फसल की कटाई के समय गाँव पहुंचे और उन्हें परेशान करने लगे। यह निज़ाम सरकार की जमीन है कहकर उन्होंने, भीम और उनके परिवार को वहां से निकलने की धमकी दी। इस सिलसिले में भीम ने निज़ाम से मुलाकात करने का फैसला किया ताकि वह आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों पर चर्चा कर सकें और न्याय की गुहार मांगें। लेकिन भीम को उनसे मिलने की अनुमति नहीं मिली। बिना हतोत्साहित हुए भीम जोड़ेघाट लौटे और उन्हें महसूस हुआ कि निज़ाम सरकार के खिलाफ ‘क्रांति’ ही एकलौता समाधान बचा था। उन्होंने बारह गाँव (जोड़ेघाट, पाटनपुर, भाबेझारी, टोकेन्नावडा, चलबरीदी, शिवगुडा, भीमानगुंदी, कल्लेगाँव, अंकुसपुर, नरसापुर, कोषागुडा, लीनेपट्टेर) के आदिवासी युवाओं और आम लोगों को संगठित किया; साथ ही भूमि अधिकारों के संघर्ष के लिए एक गुरिल्ला सेना का गठन किया। उन्होंने इस क्षेत्र को एक स्वतंत्र गोंडवाना राज्य घोषित करने की योजना को भी प्रस्तावित किया। कोमरम भीम की यह मांग स्वतंत्र गोंडवाना राज्य की मांगों की श्रंखला में पहली थी।

‘तुडुम’ की आवाज़ के साथ अन्दोलन की शुरुवात की गई। बाबेझारी और जोड़ेघाट में हमला करके गोंड सेना का विद्रोह आरंभ हुआ। इस विद्रोह के बारे में सुनकर निज़ाम सरकार भयभीत हो गयी और असिफाबाद कलेक्टर को भीम से समझौता करने को भेजा। निज़ाम ने आश्वासन दिया कि आदिवासियों को भूमि पट्टा दिया जाएगा और अतिरिक्त भूमि पर कोमरम भीम को स्वशासन हेतु दिया जाएगा। लेकिन भीम ने उनके प्रस्ताव को नकार दिया और कहा कि उनका संघर्ष न्याय के लिए है। भीम ने झूठे आरोपों से गिरफ्तार किये गए लोगों को छोड़ने की मांग की। साथ ही सेल्फ-रूल (स्व शासन) की मांग को आगे रखते हुए निज़ाम को गोंड लोगों के स्थान से निकल जाने को कहा।

विद्रोह की शुरुवात होते ही गोंड आदिवासियों ने अत्यंत उत्साह और जूनून के साथ अपने जमीन की रक्षा की। भीम के वक्तृत्व कौशल ने लोगों को जल-जंगल-जमीन के आन्दोलन से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया और भविष्य को बचाने के लिए लोगों ने आखरी सांस तक लड़ने का निश्चय किया। इसी समय कोमरम भीम ने ‘जल – जंगल – जमीन’ का नारा भी दिया।

निज़ाम सरकार ने भीम की मांगों को ठुकरा दिया और गोंड आदिवासियों पर उत्पीड़न जारी रहा। इसके साथ ही निज़ाम सरकार, भीम को मारने की साजिश करने लगी। तहसीलदार अब्दुल सत्तार ने इस क्रूर षड्यंत्र को अंजाम दिया और कप्तान एलिरजा ब्रांड्स के साथ 300 सैनिकों को लेकर बाघेजारी और जोडेघाट की पहाड़ियों में भेज दिया। निज़ाम सरकार की सेना भीम और उनकी सेना को पकड़ने में नाकाम रही। इसलिए उन्होंने कुडु पटेल (गोंड) को  रिश्वत देकर उसे निजाम सरकार का मुखबिर बना लिया। जिसने उन्हें भीम की सेना के बारे में जानकारी प्रदान की।

1 सितम्बर, 1940 की सुबह में जोड़ेघाट की महिलाओं ने गाँव के आस पास कुछ सशस्त्र पुलिस कर्मियों को देखा था, जो कोमरम भीम की खोज में थे। भीम, जो अपने कुछ सैनिकों के साथ वहां ठहरे हुए थे, पुलिस के आने की खबर सुनकर सशस्त्र तैयार हो गए; हालांकि ज्यादातर सैनिक कुल्हाड़ियाँ, तीर-धनुष, बांस की छड़ी आदि ही जुटा पाए। आसिफाबाद तालुकदार – अब्दुल सत्तार ने एक दूत भेजकर भीम को आत्मसमर्पण कराने का प्रयास किया। तीसरी बार आत्मसमर्पण की मांग को ठुकराने पर, सत्तार ने सीधा गोली चलने के आदेश दे दिए। भीम और उनके सैनिक बन्दूक के आगे असहाय थे और ज्यादा कुछ न कर सके। इस घटना में भीम के अलावा 15 सैनिक शहीद हुवे। मारू और भादू, भीम के निकट सहयोगी बताते हैं कि, “पूर्णिमा के दिन हुई इस घटना से पूरे आदिवासी समाज में उदासी छा गई और मातम सा माहौल बन गया।” शहीदों की लाश को बिना मृत्यु संस्कार के जला दिया गया था, इसलिए बहुत ही कम लोगों को शहीदों को देखने मिला। पूर्णिमा की उस रात में भीम के सैकड़ों अनुयायियों ने धनुष, तीर और भाले से पुलिस का बहादुरी से सामना किया और अपने जान की कुर्बानी दी।

‘भीम को परंपरागत जादुई मंत्रो का ज्ञान है’, की धारणा को मानकर उन्हें डर था कहीं भीम फिर से जीवित न हो जाएं। इसलिए उन्होंने भीम के शरीर में तब तक गोलियां दागी जब तक उनका शरीर छिल्ली हो गया और पहचान योग्य न रहा। अशौजा पूर्णिमा के उस दिन एक गोंड सितारा गिर गया और जोड़ेघाट की पहाड़ियां रो उठी। ‘कोमरम भीम अमर रहे, भीम दादा अमर है’ के नारों से सारे जंगल गूँज उठे।

कोमरम भीम के बारे में मौजूदा ऐतिहासिक लेखों का दावा है कि कोमरम भीम एक “राष्ट्रवादी वनवासी” नेता थे जिन्होंने निज़ाम सरकार के खिलाफ संघर्ष किया। ये दावा करते हैं कि भीम की नाराज़गी ‘हिन्दुओं’ पर हो रहे इस्लामी (निज़ाम) शोषण से थी, जिससे कि हिन्दू संस्कृति का हास हो रहा था। लेकिन जब आदिवासी, हिन्दू धर्म के चातुर्वर्ण में आते ही नहीं, जब संवैधानिक रूप से आदिवासी हिन्दू धर्म के बाहर हैं, और जब भारत के न्यायलय ने भी यह माना है कि गोंड हिन्दू नहीं हैं – तो फिर किस तर्क से कोमरम भीम ‘इस्लामी’ शोषण के खिलाफ लड़ रहे एक “हिन्दू” का प्रतीक हैं? भीम के इतिहास का कौन सा तथ्य यह दर्शाता है कि भीम ने ‘हिन्दू’ धर्म को स्वीकार किया और हिन्दुओं के अधिकार की लड़ाई की?

गोंड समाज के नज़रिए से देखने पर, भीम का इतिहास हमें एक अलग ही चित्र दिखता है। यह बताता है कि ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ करके, भीम को ‘हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा से जोड़ना इतिहासकारों का महज एक प्रोपगेंडा रहा है। जिन्होंने भीम को एक स्वतंत्र गोंड आदिवासी नेता के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया। जबकि वास्तव में कोमरम भीम का संघर्ष पूर्ण रूप से आदिवासियों पर हो रहे शोषण और अत्याचार के खिलाफ था, यह संघर्ष जल जंगल जमीन के अधिकार के लिए था। अपने लोगों की कल्पना में, भीम केवल अपने लोगों को ‘दिकु’ (बाहरी लोगों) से मुक्त कराने, उन्हें न्याय दिलाने और स्वशासन स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे।

जमीन के अधिकार के लिए दशकों से चलते आ रहे आदिवासिओं के संघर्ष में कोमरम भीम के आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है और भीम हम सब के लिए एक क्रन्तिकारी मिसाल हैं। गौरतलब है कि, गोंड समाज में कोमरम भीम की अत्यंत सम्मानजनक स्थिति है और उन्हें ‘पेन’ के रूप में स्वीकारा गया है। हर वर्ष अश्वयुजा पूर्णिमा के दिन गोंड समुदाय कोमरम भीम की पुण्यतिथि मनाता है और इस अवसर पर उनके जीवन और संघर्ष को याद करने के लिए जोड़ेघाट में एक समारोह का आयोजन किया जाता है। लम्बे समय तक संघर्ष के बाद, उनकी मृत्यु के 72 साल बाद, 2012 में भीम की मूर्ती को टैंक बैंड, हैदराबाद में स्थापित किया गया। आज हमारे समक्ष चल रही जल जंगल जमीन की लड़ाई में भीम सदैव आदिवासियों के लिए एक आदर्श रहेंगे।

सन्दर्भ:

मैपती अरुण कुमार (2016), आदिवासी जीवना विध्वंसम : आदिवासी विद्यार्थी क्षेत्र पर्यटाना (हैदराबाद, चरिता इम्प्रेशंस)

द हिन्दू, अक्टूबर 16, 2013 (अंग्रेजी समाचार पत्र)


सोमवार, ३० सप्टेंबर, २०१९

गोंडवाना साम्राज्य की वीरांगना रानी दुर्गावती की जीवनी और इतिहास

रानी दुर्गावती का नाम भारत की उन महानतम वीरांगनाओं की सबसे अग्रिम पंक्ति में आता है जिन्होंने  मात्रभूमि और अपने आत्मसम्मान की रक्षा हेतु अपने प्राणों का बलिदान दिया । रानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीरत सिंह  की पुत्री और गोंड राजा दलपत शाह की पत्नी थीं । इनका राज्य क्षेत्र दूर-दूर तक फैला था । रानी दुर्गावती बहुत ही कुशल शासिका थीं इनके शासन काल में प्रजा बहुत सुखी थी और राज्य की ख्याति दूर-दूर तक फ़ैल चुकी थी । इनके राज्य पर ना केवल अकबर बल्कि मालवा के शासक बाजबहादुर की भी नजर थी । रानी ने अपने जीवन काल में कई युद्ध लड़े और उनमें विजय भी हासिल किया गया।

रानी दुर्गावती का जन्म और बचपन :-

 विरांगना रानी जन्मस्थल (कलिंंजर किला)

रानी दुर्गावती का जन्म चंदेल राजा कीरत राय ( कीर्तिसिंह चंदेल ) के परिवार में कालिंजर के किले में  5 अक्टूबर 1524 में हुआ था । राजा कीरत राय की पुत्री का जन्म दुर्गा अष्टमी के दिन होने के कारण उसका नाम दुर्गावती रखा गया । वर्तमान में कालिंजर उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में आता है । इनके पिता राजा कीरत राय का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता था इनका सम्बन्ध उस चंदेल राज वंश से था राजा विद्याधर ने महमूद गजनबी को युद्ध में खदेड़ा था और विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के कंदारिया महादेव मंदिर  का निर्माण करवाया । रानी दुर्गावती का बचपन उस माहोल में बीता जिस राजवंश ने अपने मान सम्मान के लिये कई लडाइयां लड़ी । रानी दुर्गावती ने इसी कारण बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा भी प्राप्त की ।

रानी दुर्गावती का विवाह और ससुराल :-


               राजा दलपत शाह

रानी दुर्गावती जब विवाह योग्य हुई तब 1542 में उनका विवाह गोंड राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह के सांथ संपन्न हुआ । दोनों पक्षों की जाती अलग-अलग थीं । राजा संग्राम शाह का राज्य बहुत ही विशाल था उनके राज्य में 52 गढ़ थे और उनका राज्य वर्तमान मंडला, जबलपुर , नरसिंहपुर , होशंगाबाद, भोपाल, सागर, दमोह और वर्तमान छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों तक फैला था । गोंड राजवंश और राजपूतों के इस मेल से शेरशाह सूरी को करार झटका लगा । शेरशाह सूरी ने 1545 को कालिंजर पर हमला कर दिया और बड़ी मुश्किल से कालिंजर के किले को जीतने में सफल भी हो गया परन्तु अचानक हुए बारूद के विस्फोट से वह मारा गया । 1545 में रानी दुर्गावती ने एक पुत्र को जन्म दिया । पुत्र का नाम वीरनारायण रखा गया । 1550 में राजा दलपत शाह की मृत्यु हो गई । इस दुःख भरी घड़ी में रानी को अपने नाबालिग  पुत्र वीर नारायण को राजगद्दी पर बैठा कर स्वयं राजकाज की बागडोर संभालनी पड़ी ।

रानी दुर्गावती और उनका राज्य :


                       सिंगोरगढ़

रानी दुर्गावती की राजधानी  सिंगोरगढ़  थी । वर्तमान में जबलपुर-दमोह मार्ग पर स्थित ग्राम सिंग्रामपुर में रानी दुर्गावती की प्रतिमा  से छः किलोमीटर दूर स्थित सिंगोरगढ़ का किला बना हुआ है । सिंगोरगढ़  के अतिरिक्त मदन  महल का किला और नरसिंहपुर का चौरागढ़ का किला रानी दुर्गावती के राज्य के प्रमुख गढ़ों में से एक थे । रानी का राज्य वर्तमान के जबलपुर, नरसिंहपुर , दमोह, मंडला, होशंगाबाद,  छिंदवाडा और छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों तक फैला था । रानी के शासन का मुख्य केंद्र वर्तमान जबलपुर और उसके आस-पास का क्षेत्र था ।  अपने  दो मुख्य सलाहकारों और सेनापतियों  आधार सिंह कायस्थ और मानसिंह  ठाकुर की सहायता से राज्य को सफलता पूर्वक चला  रहीं थीं ।  रानी दुर्गावती ने 1550 से 1564 ईसवी तक सफलतापूर्वक शासन किया । रानी दुर्गावती के शासन काल में प्रजा बहुत सुखी थी और उनका राज्य भी लगातार प्रगति कर रहा था ।रानी दुर्गावती के शासन काल में उनके राज्य की ख्याति दूर-दूर तक फ़ैल गई । रानी दुर्गावंती ने  अपने शासन काल में कई मंदिर, इमारते और तालाब बनवाये । इनमें सबसे प्रमुख हैं जबलपुर का रानी ताल जो रानी दुर्गावती ने अपने नाम पर बनवाया , उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरिताल और दीवान आधार सिंह के नाम पर आधार ताल बनवाया । रानी दुर्गावती ने अपने शासन काल में जात-पात से दूर रहकर सभी को समान अधिकार दिए उनके  शासन काल में गोंड , राजपूत और कई  मुस्लिम सेनापति भी मुख्य पदों पर आसीन थे । रानी दुर्गावती ने वल्लभ सम्प्रदाय के स्वामी विट्ठलनाथ का स्वागत किया । रानी दुर्गावती को उनकी कई विशेषताओं के कारण जाना जाता है वे बहुत सुन्दर होने के सांथ-सांथ बहादुर और योग्य शासिका भी थीं । उन्होंने दुनिया को यह बलताया की दुश्मन की आगे शीश झुकाकर अपमान जनक जीवन जीने से अच्छा मृत्यु को वरदान करना है ।

रानी दुर्गावती और बाज  बहादुर की लड़ाई :-

शेर शाह सूरी के कालिंजर के दुर्ग में मरने के बाद मालवा पर सुजात खान का अधिकार हो गया जिसे उसके बेटे बाजबहादुर ने सफलतापूर्वक आगे बढाया । गोंडवाना राज्य की सीमा मालवा को छूती थीं और रानी के राज्य की ख्याति दूर-दूर तक फ़ैल चुकी थी । मालवा के शासक बाजबहादुर ने रानी को महिला समझकर कमजोर समझा और गोंडवाना पर आक्रमण करने की योजना बनाई । बाजबहादुर इतिहास में रानी रूपमती के प्रेम के लिये जाना जाता है । 1556 में बाजबहादुर ने रानी दुर्गावती पर हमला कर दिया ।  रानी की सेना बड़ी बहादुरी के सांथ लड़ी और बाजबहादुर को युद्ध में हार का सामना करना पड़ा और रानी दुर्गावती की सेना की जीत हुई । युद्ध में बाजबहादुर की सेना को  बहुत नुकसान हुआ । इस विजय के बाद रानी का नाम और प्रसिद्धी और अधिक बढ़ गई ।

रानी दुर्गावती और अकबर की लडाई :-

1562 ईसवी में अकबर ने मालवा पर आक्रमण कर मालवा के सुल्तान  बाजबहादुर को परास्त कर मालवा पर अधिकार कर लिया । अब मुग़ल साम्राज्य की सीमा रानी दुर्गावती के राज्य की  सीमाओं को छूने लगी थीं । वहीँ दूसरी तरफ अकबर के आदेश पर उसके  सेनापति अब्दुल माजिद खान  ने रीवा राज्य पर भी अधिकार कर लिया । अकबर अपने साम्राज्य को और अधिक बढ़ाना चाहता था । इसी कारण वह  गोंडवाना साम्राज्य को हड़पने की योजना बनाने लगा । उसने रानी दुर्गावती को सन्देश भिजवाया कि वह अपने प्रिय सफ़ेद हांथी सरमन और सूबेदार आधार सिंह को मुग़ल दरवार में भेज दे । रानी अकबर के मंसूबों से भली भांति परिचित थी उसने अकबर की बात मानने से साफ इंकार कर दिया और अपनी सेना को युद्ध की तैयारी करने का आदेश दिया । इधर अकबर ने अपने सेनापति आसफ खान को गोंडवाना पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया । आसफ खान एक विशाल सेना लेकर रानी पर आक्रमण करने के लिये आगे बढ़ा । रानी दुर्गावारी जानती थीं की उनकी सेना अकबर की सेना के आगे बहुत छोटी है । युद्ध में एक और जहाँ मुगलों की विशाल सेना आधुनिक अस्त्र-शत्र से प्रशिक्षित सेना थी वहीँ रानी दुर्गावती की  सेना छोटी और पुराने परंपरागत हथियार से तैयार थी । उन्होंने अपनी सेना को नरई नाला घाटी की तरफ कूच  करने का आदेश दिया । रानी दुर्गावती के लिये नरई  युद्ध हेतु  सुविधाजनक स्थान था क्यूंकि यह स्थान एक ओर से नर्मदा नदी की विशाल जलधारा से और दूसरी तरफ गौर नदी से घिरा था और नरई के चारो तरफ घने जंगलों से घिरी पहडियाँ थीं । मुग़ल सेना के लिये यह क्षेत्र युद्ध हेतु कठिन था । जैसे ही मुग़ल सेना ने घाटी में प्रवेश किया रानी के सैनिकों ने उस पर धावा बोल दिया । लडाई में रानी की सेना के फौजदार अर्जुन सिंह मारे गये अब रानी ने स्वयं ही पुरुष वेश धारण कर युद्ध का नेतृत्व किया दोनों तरफ से सेनाओं को काफी नुकसान हुआ । शाम होते होते रानी की सेना ने मुग़ल सेना को घाटी से खदेड़ दिया और इस दिन की लड़ाई में रानी दुर्गावती की विजय हुई । रानी रात में ही दुबारा मुग़ल सेना पर हमला उसे भरी नुकसान पहुँचाना चाहती थीं परन्तु उनके सलाहकारों ने उन्हें ऐसा नहीं करने की सलाह दी ।
रानी दुर्गावती का बलिदान :-

अपनी हार से तिलमिलाई मुग़ल सेना के सेनापति आसफ खान ने दूसरे दिन विशाल सेना एकत्र की और बड़ी-बड़ी तोपों के सांथ दुबारा रानी पर हमला बोल दिया । रानी दुर्गावती भी अपने प्रिय सफ़ेद हांथी सरमन पर सवार होकर युद्ध मैदान में उतरीं । रानी के सांथ राजकुमार वीरनारायण भी थे रानी की सेना ने कई बार मुग़ल सेना को पीछे धकेला । कुंवर वीरनारायण के घायल हो जाने से रानी ने उन्हें युद्ध से बाहर सुरक्षित जगह भिजवा दिया । युद्ध के दौरान एक तीर रानी दुर्गावती के कान के पास लगा और दूसरा तीर उनकी गर्दन में लगा । तीर लगने से रानी कुछ समय के लिये अचेत हो गई । जब पुनः रानी को होश आया तब तक मुग़ल सेना हावी हो चुकी थी । रानी के सेनापतियों ने उन्हें युद्ध का मैदान छोड़कर सुरक्षित स्थान पर जाने की सलाह दी परन्तु रानी ने इस सलाह को दर किनार कर दिया । अपने आप को चारो तरफ से घिरता देख रानी ने  अपने शरीर को शत्रू के हाँथ ना लगने देने की सौगंध खाते हुए अपने मान-सम्मान की रक्षा हेतु अपनी तलवार निकाली और स्वयं तलवार  घोपकर अपना बलिदान दे दिया और इसतिहास में वीरंगना रानी सदा - सदा के लिये अमर हो गई । जिस दिन रानी ने अपना बलिदान दिया था वह दिन 24 जून 1564 ईसवी का था । अब प्रतिवर्ष 24 जून को बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है और रानी दुर्गावती को याद किया जाता है ।

रानी दुर्गावती के बलिदान के बाद उनका राज्य :-

रानी दुर्गावती के बलिदान के बाद कुंवर वीर नारायण चौरागढ़ में मुगलों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए । अब सम्पूर्ण गोंडवाना पर मुगलों का अधिपत्य हो गया । कुछ समय पश्चात राजा संग्राम शाह के छोटे पुत्र ( रानी दुर्गावती के देवर ) और चांदा  गढ़ के राजा चन्द्र शाह को अकबर ने अपने अधीन गोंडवाना का राजा घोषित किया और बदले में अकबर ने गोंडवाना के 10 गढ़ लिये ।

रानी दुर्गावती की समाधि :-

वर्तमान में जबलपुर जिले में जबलपुर और मंडला रोड पर स्थित  बरेला के पास नारिया नाला वह स्थान है जिधर रानी दुर्गावती  वीरगती को प्राप्त हुईं थीं । अब इसी स्थान के पास बरेला में रानी दुर्गावती का  समाधि स्थल है । प्रतिवर्ष 24 जून को रानी दुर्गावती के बलिदान दिवस पर लोग इस स्थान पर उन्हें श्रध्दा सुमन अर्पित करते हैं ।

रानी दुर्गावती का सम्मान :-

जबलपूर संग्रहालय

रानी दुर्गावती के सम्मान में 1983 में  जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय कर दिया गया ।
भारत शासन द्वारा 24 जून 1988 रानी दुर्गावती के बलिदान दिवस पर एक डाक टिकट जारी कर रानी दुर्गावती को याद किया ।

                    डाक टिकट 

जबलपुर में स्थित संग्रहालय का नाम भी रानी दुर्गावती  के नाम पर रखा गया ।
मंडला जिले के शासकीय महाविद्यालय का नाम भी रानी दुर्गावती के नाम पर ही रखा गया है ।
इसी प्रकार कई जिलों में रानी दुर्गावती की प्रतिमाएं लगाई गई हैं और कई शासकीय इमारतों का नाम भी रानी दुर्गावती के नाम पर रखा गया है ।
धन्य हैं रानी दुर्गावती जिन्होंने अपने स्वाभिमान और देश की रक्षा के लिये अपना बलिदान दिया । अपने इस लेख के माध्यम से हम रानी दुर्गावती और उनके शाहस और बलिदान को शत-शत नमन करतें हैं ।


संकलन : सुशिल म. कुवर

तसवीर : प्रतिरोधी साझा कर सकते हैं

   गोंडवाना साम्राज्य वीरांगना रानी दुर्गावती

मंगळवार, ५ फेब्रुवारी, २०१९

भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी तिलका मांझी

🌷तिलका माँझी 🌷
जन्म :- 11 फ़रवरी, 1750,सुल्तानगंज,बिहार;
शहादत- 1785,भागलपुर)

'भारतीय स्वाधीनता संग्राम' के पहले शहीद थे l इन्होंने अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध एक लम्बी लड़ाई छेड़ी थी। संथालोंद्वारा किये गए प्रसिद्ध 'संथाल विद्रोह' का नेतृत्त्व भी तिलका माँझी ने किया था। तिलका माँझी का नाम देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्रामी और शहीद के रूप में लिया जाता है। अंग्रेज़ी शासन की बर्बरता के जघन्य कार्यों के विरुद्ध उन्होंने जोरदार तरीके से आवाज़ उठायी थी। इस वीर स्वतंत्रता सेनानी को 1785 में गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर फ़ाँसी दे दी गई।जन्म तथा बाल्यकाल तिलका माँझी का जन्म 11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज में 'तिलकपुर' नामक गाँव में एक संथाल परिवार में हुआथा। इनके पिता का नाम 'सुंदरा मुर्मू' था। तिलका माँझी को 'जाबरा पहाड़िया' केनाम से भी जाना जाता था। बचपन से ही तिलका माँझी जंगली सभ्यता की छाया में धनुष-बाण चलाते और जंगली जानवरों का शिकार करते। कसरत-कुश्ती करना बड़े-बड़े वृक्षों पर चढ़ना-उतरना, बीहड़ जंगलों, नदियों, भयानक जानवरों से छेड़खानी, घाटियों में घूमना आदि उनका रोजमर्रा का काम था। जंगली जीवन ने उन्हें निडर व वीर बना दिया था। [1] अंग्रेज़ी अत्याचार किशोर जीवन से ही अपने परिवार तथा जातिपर उन्होंने अंग्रेज़ी सत्ता का अत्याचार देखा था। अनाचार देखकर उनका रक्त खौल उठता और अंग्रेज़ी सत्ता से टक्कर लेने के लिए उनके मस्तिष्क में विद्रोह की लहर पैदा होती। गरीब आदिवासियों की भूमि, खेती, जंगली वृक्षों पर अंग्रेज़ी शासक अपना अधिकार किये हुए थे। जंगली आदिवासियों के बच्चों, महिलाओं, बूढ़ों को अंग्रेज़ कई प्रकार से प्रताड़ित करते थे। आदिवासियों के पर्वतीय अंचल में पहाड़ी जनजाति का शासन था। वहां पर बसा हुए पर्वतीय सरदार भी अपनी भूमि, खेती की रक्षा के लिए अंग्रेज़ी सरकार से लड़ते थे। पहाड़ों के इर्द-गिर्द बसे हुए जमींदार अंग्रेज़ी सरकार को धन के लालच में खुश किये हुए थे। आदिवासियों और पर्वतीय सरदारों की लड़ाई रह-रहकर अंग्रेज़ी सत्ता से हो जाती थी और पर्वतीय जमींदार वर्ग अंग्रेज़ी सत्ताका खुलकर साथ देता था। विद्रोह अंततः वह दिन भी आ गया, जब तिलका माँझी ने 'बनैचारी जोर' नामक स्थान से अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया। वीर तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासी वीरों के विद्रोही कदमभागलपुर,सुल्तानगंजतथा दूर-दूर तक जंगली क्षेत्रों की तरफ बढ़ रहे थे।राजमहल की भूमि पर पर्वतीय सरदार अंग्रेज़ी सैनिकों से टक्कर ले रहे थे।स्थिति का जायजा लेकर अंग्रेज़ों ने क्लीव लैंड को मैजिस्ट्रेट नियुक्त कर राजमहल भेजा। क्लीव लैंड अपनी सेना और पुलिस के साथ चारों ओर देख-रेख में जुट गया।हिन्दू-मुस्लिम में फूट डालकर शासन करने वाली ब्रिटिश सत्ता को तिलका माँझी ने ललकारा और विद्रोह शुरू कर दिया।क्लीव लैंड की हत्याजंगल,तराई तथागंगा, ब्रह्मी आदि नदियों की घाटियों में तिलका माँझी अपनी सेना लेकर अंग्रेज़ी सरकार के सैनिक अफसरों के साथ लगातार संघर्ष करते-करते मुंगेर,भागलपुर, संथाल परगना के पर्वतीय इलाकों में छिप-छिप कर लड़ाई लड़ते रहे। क्लीव लैंड एवं सरआयर कूट की सेना के साथ वीर तिलका की कई स्थानों पर जमकर लड़ाई हुई। वेअंग्रेज़ सैनिकों से मुकाबला करते-करते भागलपुर की ओर बढ़ गए। वहीं से उनके सैनिक छिप-छिपकर अंग्रेज़ी सेना पर अस्त्र प्रहार करने लगे। समय पाकर तिलका माँझी एक ताड़ के पेड़ पर चढ़ गए। ठीक उसी समय घोड़े पर सवार क्लीव लैंड उस ओर आया। इसी समय राजमहल के सुपरिटेंडेंट क्लीव लैंड को तिलका माँझी ने13 जनवरी, 1784 को अपने तीरों से मार गिराया। क्लीव लैंड की मृत्यु का समाचार पाकर अंग्रेज़ी सरकार डांवाडोल हो उठी। सत्ताधारियों, सैनिकों और अफसरों में भय का वातावरण छा गया। [1] गिरफ़्तारीएक रात तिलका माँझी और उनके क्रान्तिकारी साथी, जब एक उत्सव में नाच गाने की उमंग में खोए थे, तभी अचानक एक गद्दार सरदार जाउदाह ने संथाली वीरों पर आक्रमण कर दिया। इस अचानक हुएआक्रमण से तिलका माँझी तो बच गये, किन्तु अनेक देश भक्तवीर शहीद हुए। कुछको बन्दी बना लिया गया। तिलका माँझी नेवहां से भागकरसुल्तानगंजके पर्वतीय अंचल में शरण ली।भागलपुर से लेकर सुल्तानगंज व उसके आसपास के पर्वतीय इलाकों में अंग्रेज़ी सेना ने उन्हें पकड़ने के लिए जाल बिछा दिया।वीर तिलका माँझी एवं उनकी सेना को अब पर्वतीय इलाकों में छिप-छिपकर संघर्ष करना कठिन जान पड़ा। अन्न के अभाव में उनकी सेना भूखों मरने लगी। अब तो वीर माँझी और उनके सैनिकों के आगे एक ही युक्ति थी कि छापामार लड़ाई लड़ी जाये। तिलका माँझी के नेतृत्व मेंसंथाल आदिवासियों ने अंग्रेज़ी सेना पर प्रत्यक्ष रूप से धावा बोल दिया। युद्धके दरम्यान तिलका माँझी को अंग्रेज़ी सेना ने घेर लिया। अंग्रेज़ी सत्ता ने इस महान विद्रोही देशभक्त को बन्दी बना लिया।शहादत सन 1785 में एक वट वृक्ष में रस्से से बांधकर तिलका माँझी को फ़ाँसी दे दी गई। तिलका माँझी ऐसे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने भारतको ग़ुलामी से मुक्त कराने के लिए अंग्रेज़ोंके विरुद्ध सबसे पहले आवाज़ उठाई थी, जो 90 वर्षबाद 1857 में स्वाधीनता संग्राम के रूप में पुनः फूट पड़ी थी। क्रान्तिकारी तिलका माँझी की स्मृति में भागलपुर में कचहरी के निकट, उनकी एकमूर्ति स्थापित की गयी है। तिलका माँझी भारत भूमि के अमर सपूत के रूप में सदा याद किये जाते रहेंगे।

संकलन: सुशिल म कुवर