देश के लिए मर-मिटने वाली झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का नाम हर किसी के दिल में बसा है। कोई अगर भुलाना भी चाहे तब भी भारत माँ की इस बेटी को नहीं भुला सकता। लेकिन रानी लक्ष्मी बाई के ही साथ देश की एक और बेटी थी, जिसके सर पर न रानी का ताज था न ही सत्ता पर फिर भी अपनी मिट्टी के लिए वह जी-जान से लड़ी और इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ गयी।
वह वीरांगना, जिसने न केवल 1857 की क्रांति में भाग लिया बल्कि अपने देशवासियों और अपनी रानी की रक्षा के लिए अपने प्राणों की भी परवाह नहीं की!
हम बात कर रहे हैं झांसी की रानी, लक्ष्मी बाई की परछाई बन अंग्रेजों से लोहा लेने वाली, झलकारी बाई की।
ग्वालियर में वीर झलकारी बाई की प्रतिमा (विकिपीडिया)
झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को उत्तर प्रदेश के झांसी के पास के भोजला गाँव में एक कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी।
उनके पिता ने उन्हें एक पुत्र की तरह पाला। उन्हें घुड़सवारी, तीर चलाना, तलवार बाजी करने जैसे सभी युद्ध कौशल सिकाये। झलकारी ने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी, पर फिर भी वे किसी भी कुशल और अनुभवी योद्धा से कम नहीं थी। बताया जाता है कि रानी लक्ष्मी बाई की ही तरह उनकी बहादुरी के चर्चे भी बचपन से ही होने लगे थे।
मेघवंशी समाज में जन्मी, झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं की देख-रेख और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में झलकारी की मुठभेड़ एक बाघ से हो गई थी और उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से उसे मार गिराया। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया, तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था।
झलकारी बाई की प्रतीकात्मक पेंटिंग
झलकारी जितनी बहादुर थी, उतने ही बहादुर सैनिक से उनका विवाह हुआ। यह वीर सैनिक था पूरन कोरी, जो झांसी की गंगाधर राव सेना में अपनी बहादुरी के लिए प्रसिद्द था।
विवाह के बाद जब झलकारी झांसी आई तो एक बार गौरी पूजा के अवसर पर गाँव की अन्य महिलाओं के साथ, वह भी महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गयीं। वहाँ जब रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें देखा तो वह दंग रह गयी। झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह ही दिखतीं थीं। साथ ही जब रानी ने झलकारी की बहादुरी के किस्से सुने तो उनसे इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने झलकारी को तुरंत ही दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दे दिया।
झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया। पहले से ही इन कलाओं में कौशल झलकारी इतनी पारंगत हो गयी कि जल्द ही उन्हें दुर्गा सेना का सेनापति बना दिया गया।
केवल सेना में ही नहीं बल्कि बहुत बार झलकारी ने व्यक्तिगत तौर पर भी रानी लक्ष्मी बाई का साथ दिया। कई बार उन्होंने रानी की अनुपस्थिति में अंग्रेजों को चकमा दिया।
हमशक्ल होने के कारण कोई भी पहचान नहीं पाता था कि कौन रानी लक्ष्मी बाई है और कौन झलकारी बाई।
युद्ध के दौरान झलकारी बाई
1857 के विद्रोह के समय, जनरल ह्यूरोज ने अपनी विशाल सेना के साथ 23 मार्च 1858 को झाँसी पर आक्रमण किया। रानी ने वीरतापूर्वक अपने सैन्य दल से उस विशाल सेना का सामना किया। रानी कालपी में पेशवा द्वारा सहायता की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन उन्हें कोई सहायता नही मिल सकी, क्योंकि तात्याँ टोपे जनरल ह्युरोज से पराजित हो चुके थे।
जल्द ही अंग्रेजी फ़ौज झाँसी में घुस गयी और रानी अपने लोगों को बचाने के लिए जी-जान से लड़ने लगी। ऐसे में झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने के लिये खुद को रानी बताते हुए लड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने पूरी अंग्रेजी सेना को भ्रम में रखा ताकि रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित बाहर निकल सकें।
एक बुन्देलखंडी कथा के अनुसार रानी लक्ष्मी बाई का वेश धर झलकारी बाई किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज के शिविर में उससे मिलने पहुँची। ब्रिटिश शिविर में पहुँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल रोज़ से मिलना चाहती है। रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है।
झलकारी बाई के जीवन पर किताबपर यह झलकारी की रणनीति थी, ताकि वे अंग्रेजों को उलझाए रखें और रानी लक्ष्मी बाई को ताकत जुटाने के लिए और समय मिल जाये।
जनरल ह्यूरोज़ (जो उन्हें रानी ही समझ रहा था) ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा, चाहे मुझे फाँसी दे दो। झलकारी के इसी साहस और नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर जनरल ह्यूरोज़ ने कहा था,
“यदि भारत की एक प्रतिशत महिलायें भी उसके जैसी हो जायें, तो ब्रिटिश सरकार को जल्द ही भारत छोड़ना होगा।”
कुछ लोगों का कहना हैं कि युद्ध के बाद उन्हें छोड़ दिया गया था और फिर उनकी मृत्यु 1890 में हुई। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी बाई को युद्ध के दौरान 4 अप्रैल 1858 को वीरगति प्राप्त हुई। उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेजों को पता चला कि जिस वीरांगना ने उन्हें कई दिनों तक युद्ध में घेरकर रखा था, वह रानी लक्ष्मी बाई नहीं बल्कि उनकी हमशक्ल झलकारी बाई थी।
स्त्रोत: कार्टूनिस्ट लोकेेशपूूूजाउकेेझलकारी बाई का उल्लेख कई क्षेत्रीय लेखकों द्वारा अपनी रचनाओं में किया गया है!
कवि मैथिलीशरण गुप्त ने उनके शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि
“जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।”
झलकारी बाई के सम्मान में पोस्टल स्टैम्प
झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है। उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर (राजस्थान) में बना है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ में एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है। आज भी झलकारी बाई की पुण्यतिथि को कोली समाज द्वारा शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता हैं| इसके अलावा पुरातत्व विभाग द्वारा झाँसी के पंचमहल म्यूजियम में झलकारी बाई से जुड़ी वस्तुएँ रखी गई हैं| झलकारी बाई की एक प्रतिमा समाधि-स्थल के रूप में भोपाल के गुरु तेगबहादुर कॉम्प्लेक्स में स्थापित की गयी हैं, जिसका अनावरण भारत के मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कौविंद द्वारा 10 नवम्बर 2017 को किया गया था|
इसे विडंबना ही कह लीजिये कि देश के लिए अपने प्राणों की भेंट चढ़ा देने वाली भारत की इस बेटी बाई को इतिहास में बहुत अधिक स्थान नहीं मिला। पर उनके सम्मान में भारत सरकार ने उनके नाम का पोस्ट और टेलीग्राम स्टेम्प जारी किया, साथ ही भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में, झाँसी के किले में झलकारी बाई का भी उल्लेख किया है।
भारत की सम्पूर्ण आज़ादी के सपने को पूरा करने के लिए अपना सर्वोच्च न्योछावर करने वाली वीरांगना झलकारी बाई का देश सदैव ऋणी रहेगा !
संदर्भ:
- 1857 की क्रांतिकारी झलकारी बाई
- आदिवासी अर्थात मूलनिवासी महानायक
संकलन : सुशिल म. कुवर
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