बुधवार, २१ ऑक्टोबर, २०२०

तेलंगाना का महान कोइतूर क्रांतिकारी कोमाराम भीम

तेलंगाना की पावन भूमि पर अनेकों वीर पुरुषों का जन्म हुआ जिन्होंने मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक के खिलाफ अपने देश को स्वतंत्र करवाने के लिए संघर्ष किया और देश के लिए हँसते हँसते प्राण त्याग दिये। उन्ही वीर महापुरुषों में से एक महान क्रांतिकारी कोमाराम भीम उर्फ कुमराम भीमू का आज जन्म दिवस है । आइये इस महान सेनानी एवं क्रांतिवीर के अद्भुत बलिदान के बारे में जानते हैं। 

कोमाराम भीम (कुमराम भीमू या भीमराव कुमरे ) भारत के एक कोइतूर जन नायक और  क्रांतिकारी वीर थे जिन्होने हैदराबाद की मुक्ति के लिये के आसफ जाही राजवंश के विरुद्ध संघर्ष किया था। वे छापामार शैली के युद्ध कला में पारंगत थे। निजाम के शासन के अन्यायों के खिलाफ  उन्होने निजाम के न्यायालयी आदेशों, कानूनों और उसकी प्रभुसत्ता को मानने से इंकार कर दिया था  और अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर निजाम शासन को सीधे चुनौती दी थी। 

इस महान क्रांतिकारी का जन्म तेलंगाना राज्य के आसिफाबाद जिले के जोड़घाट के जंगलो में गोंड परिवार में आज के ही दिन यानि 22 अक्टूबर 1901 को हुआ था। कोमाराम भीम को किसी भी प्रकार की औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी और न ही उनका तथाकथित सभ्य दुनिया वालों से कोई सीधा संबंध था । वे जंगलों में ही पले बढ़े और वही पर अपने लोगों के लिए कुर्बान हो गए।  उनका विवाह कुमराम सोमबाई से हुआ था।

 Kumram Sombai W/O Kumram Bheemu

कोमाराम भीम बचपन से ही गोंड और कोलम कोइतूरों के शोषण की कहानियाँ सुनते रहते थे और जैसे जैसे बड़े होते गए वैसे वैसे निजाम के सिपाहियों और अधिकारियों द्वारा ढाये जाने वाले जुल्म को स्वयं अपनी आँखों से देखा और महसूस किया। वे कोइतूर जन जातियों पर  पुलिस, व्यापारियों और जमींदारों द्वारा किए जा रहे अन्याय के कारण बहुत दुखी रहते थे। वे और उनका परिवार अवैध वसूली से बचाने के लिए यहाँ से वहाँ भागता फिरता रहता था और जंगलों में छुपता रहता था । 

पोडू खेती के बाद पैदा होने वाली फसलें निजाम के अधिकारियों और पोलिस द्वारा यह कहकर छीन ली जाती थी  कि जमीन उनकी है। उन्होंने अपनी आँखों के सामने कोइतूर बच्चों की उँगलियाँ  को कटते हुए देखा था क्यूंकी पेड़ काटने का झूँठा आरोप लगकार निजाम के अधिकारी सजा के तौर पर बच्चों की उँगलियाँ काट देते थे। लोगों से बलपूर्वक लगान एकत्र किए किए जाते थे  और झूठे मामलों में फँसाकर जेल में बंद कर दिया जाता था। 

ऐसी स्थिति में, कोइतूरों को वन अधिकार दिलवाने के लिए संघर्ष करने के कारण उनके पिता को वन अधिकारियों द्वारा मार दिया गया था। कोमाराम भीम अपने पिता की हत्या से व्यथित हो उठे और कुछ कर गुजरने की दबी इच्छा पुनः जाग्रत हो उठी। पिता की मृत्यु के बाद वह और उनका परिवार संकपल्ली से सरदापुर(सुरधापुर) आ गया। पिता की मृत्यु के समय कोमाराम भीम मात्र 19 वर्ष के थे। 

बड़े होकर कोमाराम भीम तेलंगाना के ही वीर सीताराम राजू से काफी प्रभावित रहते थे और उनकी ही तरह कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखते थे। इस दरमियान उन्हे  भगत सिंह को फांसी दिये जाने की खबर मिली जिससे वे बहुत दुखी हुए और उन्होने अंग्रेजों के सरपरस्त निज़ामो को हैदराबाद से खदेड़ने का प्लान बना लिया। 

निजाम शासन के विरुद्ध  कोमाराम भीम ने बगावत का बिगुल फूँक दिया और आस पास के सभी गाँव में पर्चा भेजवा दिया कि निजामों को और उनके अधिकारियों को किसी प्रकार का सहयोग और लगान न दिया जाये । कोमाराम भीम ने अदिलाबाद से सटे जंगलों में निजाम के अधिकारियों को ठिकाने लगाना शुरू कर दिया और अपने साथियों के साथ रोज कोई न कोई कांड करते रहते थे उनका सबसे प्रिय नारा था “जल, जंगल और जमीन” हमारा है । इनके द्वारा दिए गए इस नारे (मावा नाटे मावा राज )  का मतलब था कि जो भी व्यक्ति जंगल में रहता है या वहाँ अपना जीवन यापन करता है उसका जंगल के सभी संसाधनों पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए।

एक दिन पटवारी लक्ष्मण राव और निजाम पाटीदार सिद्दीकी साहब अपने कुछ सैनिकों के साथ फसल की कटाई के बाद लगान वसूलने आए और  गोंडों को गाली देना और मारना पीटना शुरू कर दिया जिसे देखकर कोमाराम भीम का खून खौल उठा और  उन्होंने वहीं सिद्दीकी का कत्ल कर दिया जिससे डरकर सभी बचे लोग भाग गए। इस घटना ही खबर सुन कर निजाम पागल हो गया और उसने भीम को किसी भी हालात में काबू करने का आदेश दिया । निजाम की सरकार ने कोमाराम को मारने की योजना बनाई। इस बात का पता लगते ही कोमाराम भीम  असम चले गये। वहां पर वह चाय बगानों में काम करने लगे। वहाँ पर भी उन्हे चैन नहीं मिला और अपने लोगों को स्वतंत्र करने के लिए पाँच साल बाद  फिर अपने गाँव सरदापुर वापस आ गए।
 Kumram Bheemu Real Image

जोडघाट के क्षेत्रो में गोंड नौजवानों को एकत्रित किया और छापामार गेरिल्ला आर्मी तैयार किया। एक बार फिर से जल-जंगल-जमीन के  नारे के साथ गोंड और कोलम कोइतूरों को एकजुट किया। इस तरह से वे आसपास के 12 गांवों में शासन करने लगे । उनके एक खास दोस्त बेदमा रामू थे जो बांसुरी बजकर उन्हे निजाम के सैनिकों के आने पर पहले ही आगाह करते थे । 

इसके बाद उन्होने ने 12 गावों का स्वतंत्र राज्य बनाने के लिए निजाम को पत्र लिखा। कोमाराम भीम  ने 1 सितंबर, 1940 को निजाम के साथ चर्चा करने के लिए हैदराबाद भी गए लेकिन कोई खास हल नहीं निकला और वार्ता असफल रही। बाद में निजाम की सेना ने कोमाराम भीम की सेना को नियंत्रित करने के लिए कोशिश की, लेकिन वे असफल रहे। निजाम सरकार ने कोमाराम की सेना को नियंत्रण करने के लिए ब्रिटिश सेना की भी मदद  ली, मगर कोमाराम भीम की सेना के सामने उनकी एक न चली। 

कुर्दु पटेल नामक देशद्रोही ने कोमाराम भीम के साथ विश्वासघात किया और अंग्रेजों को उनका  ठिकाना बताया। 16 अक्टूबर, 1940 आसिफाबाद के जोडघाट में कोमाराम भीम की सेना के साथ निजाम और ब्रिटिश की सेना के बीच लगातार तीन दिन तक लडाई जारी रही। 18 अक्तूबर 1940 को निजाम सेना के तेज तर्रार थानेदार अब्दुल सत्तार ने कोमाराम भीम को आत्मसमर्पण करने के लिए कहा लेकिन भीम तैयार नहीं हुए। उस भयंकर चांदनी रात को निजामों और अंग्रेजों की सेना ने भीम और उनके साथियों पर हमला कर दिया।  उस रात भीम के सभी समर्थक तीर धनुष और ढाल लेकर आगे बढ़े और जम कर सेना का मुक़ाबला किया। इस संघर्ष में कोमाराम  भीम और उनके साथी मारे गये। तब से लेकर अब तक गोंड कोइतूर कोमाराम भीम को अपना भगवान मानते हैं।

जोडघाट पहाड़ी के नीचे कोमाराम भीम की समाधि है और वहीं बगल में विशाल स्मारक बनाया हुआ है जहां पर बंदूक लिए उनकी आदमक़द प्रतिमा लगी हुई है । अभी कुछ दिन पहले मैं उनकी समाधि को देखने गया था वहाँ से उनके बारे में बहुत सारी कहानिया सुनने को मिली। वहीं पर एक म्यूजियम भी बनाया गया है जिसमें उनके जीवन के अनछूए पहलुओं को बहुत ही खूबसूरती से दिखाया गया है। 

उन्ही के नाम से से आसिफाबाद जिले का नाम बदलकर कोमाराम  भीम जिला कर दिया गया है ।  कोमाराम भीम नाम के इस वीर सेनानी पर  बनी  फिल्म को ए.पी. स्टेट नंदी अवार्ड्स (1990) द्वारा बेस्ट फीचर फिल्म ऑन नेशनल इंटीग्रेशन और बेस्ट डायरेक्टर ऑफ ए डेब्यू फिल्म जैसे कई अवार्ड मिल चुके हैं।  जाने-माने निर्देशक / निर्माता नगबाला सुरेश कुमार द्वारा निर्देशित, टीवी सीरीज़ "वीरभीम" एक बहुत ही सफल धारावाहिक था जो कोमाराम भीम की जीवनी पर आधारित था। 

आज उस महान क्रांतिवीर, महापुरुष को याद करते हुए आंखे नम हो रही हैं जिसने अपने जल जंगल जमीन के लिए अपने को बलिदान कर दिया। उनकी जयंती पर उन्हे कोटि कोटि अभिनंदन, सादर नमन और सेवा जोहार !!

सोमवार, १९ ऑक्टोबर, २०२०

1824 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह करने वाली कर्नाटक की पहली महिला योद्धा रानी चेन्नम्मा

19 वीं सदी की शुरुआत में देश के बहुत से शासक अंग्रेजों की बदनीयत को समझ नहीं पाए थे। लेकिन उस समय भी कित्तुर की रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी थी।

रानी चेन्नम्मा की कहानी लगभग झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह है। इसलिए उनको 'कर्नाटक की लक्ष्मीबाई' भी कहा जाता है। वह पहली भारतीय शासक थीं जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया। भले ही अंग्रेजों की सेना के मुकाबले उनके सैनिकों की संख्या कम थी और उनको गिरफ्तार किया गया लेकिन ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत का नेतृत्व करने के लिए उनको अब तक याद किया जाता है।

         रानी चेन्नम्मा की तसवीर

रानी चेन्नम्मा का जन्म 23 अक्टूबर, 1778 को काकती में हुआ था। यह कर्नाटक के बेलगाँव जिले में एक छोटा सा गांव है। उनकी शादी देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से हुई जिसके बाद वह कित्तुरु की रानी बन गईं। कित्तुर अभी कर्नाटक में है। उनको एक बेटा हुआ था जिनकी 1824 में मौत हो गई थी। अपने बेटे की मौत के बाद उन्होंने एक अन्य बच्चे शिवलिंगप्पा को गोद ले लिया और अपनी गद्दी का वारिस घोषित किया। लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी 'हड़प नीति' के तहत उसको स्वीकार नहीं किया। हालांकि उस समय तक हड़प नीति लागू नहीं हुई थी फिर भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1824 में कित्तुरु पर कब्जा कर लिया।

              राजा मल्लसारजा 

शिवलिंगप्पा को निर्वासित करने का आदेश

         कित्तूर किला

ब्रिटिश शासन ने शिवलिंगप्पा को निर्वासित करने का आदेश दिया गया। लेकिन चेन्नम्मा ने अंग्रेजों का आदेश नहीं माना। उन्होंने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन को एक पत्र भेजा। उन्होंने कित्तुर के मामले में हड़प नीति नहीं लागू करने का आग्रह किया। लेकिन उनके आग्रह को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया। इस तरह से ब्रिटिश और कित्तुर के बीच लड़ाई शुरू हो गई। अंग्रेजों ने कित्तुर के खजाने और आभूषणों के जखीरे को जब्त करने की कोशिश की जिसका मूल्य करीब 15 लाख रुपये था। लेकिन वे सफल नहीं हुए।

रानी चेनम्मा ने किया अंग्रेजों से मुकाबला

अंग्रेजों ने 20,000 सिहापियों और 400 बंदूकों के साथ कित्तुरु पर हमला कर दिया। अक्टूबर 1824 में उनके बीच पहली लड़ाई हुई। उस लड़ाई में ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। कलेक्टर और अंग्रेजों का एजेंट सेंट जॉन ठाकरे कित्तुरु की सेना के हाथों मारा गया। चेन्नम्मा के सहयोगी अमातूर बेलप्पा ने उसे मार गिराया था और ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान पहुंचाया था। दो ब्रिटिश अधिकारियों सर वॉल्टर एलियट और स्टीवेंसन को बंधक बना लिया गया। अंग्रेजों ने वादा किया कि अब युद्ध नहीं करेंगे तो रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश अधिकारियों को रिहा कर दिया। लेकिन अंग्रेजों ने धोखा दिया और फिर से युद्ध छेड़ दिया। इस बार ब्रिटिश अफसर चैपलिन ने पहले से भी ज्यादा सिपाहियों के साथ हमला किया। सर थॉमस मुनरो का भतीजा और सोलापुर का सब कलेक्टर मुनरो मारा गया। रानी चेन्नम्मा अपने सहयोगियों संगोल्ली रयन्ना और गुरुसिदप्पा के साथ जोरदार तरीके से लड़ीं। लेकिन अंग्रेजों के मुकाबले कम सैनिक होने के कारण वह हार गईं। उनको बेलहोंगल के किले में कैद कर दिया गया। वहीं 21 फरवरी 1829 को उनकी मौत हो गई।

रानी चेनम्मा लड़ाई हार गईं पर इतिहास में आज भी अमर है

          रानी चेनम्मा समाधिस्थल (कित्तूर)

भले ही रानी चेन्नम्मा आखिरी लड़ाई में हार गईं लेकिन उनकी वीरता को हमेशा याद किया जाएगा। उनकी पहली जीत और विरासत का जश्न अब भी मनाया जाता है। हर साल कित्तुरु में 22 से 24 अक्टूबर तक कित्तुरु उत्सव लगता है जिसमें उनकी जीत का जश्न मनाया जाता है। रानी चेन्नम्मा को बेलहोंगल तालुका में दफनाया गया है। उनकी समाधि एक छोटे से पार्क में है जिसकी देखरेख सरकार के जिम्मे है।

पार्लमेंट कॉप्लेक्स में लगी है रानी चेनम्मा प्रतिमा

उनकी एक प्रतिमा नई दिल्ली के पार्लमेंट कंप्लेक्स में लगी है। कित्तुरु की रानी चेन्नम्मा की उस प्रतिमा का अनावरण 11 सितंबर, 2007 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने किया था। प्रतिमा को कित्तुर रानी चेन्नम्मा स्मारक कमिटी ने दान दिया था जिसे विजय गौड़ ने तैयार किया था।

संकलन: सुशिल म. कुवर