शनिवार, २१ नोव्हेंबर, २०२०

आदिवासी स्वतंत्र सेनानी शहीद लक्ष्मण नायक को याद करते हुए, 'मलकानगिरी के गांधी'

"लक्ष्मण नायक की कहानी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आदिवासी समुदाय द्वारा किए गए उत्कृष्ट योगदान के लिए एक वसीयतनामा है।"

यदि सूर्य सत्य है, और ऐसा ही चंद्रमा है, तो यह भी उतना ही सत्य है कि माँ भारत स्वतंत्र होगा।

29 मार्च 1943 को भोर के ब्रेक में, शहीद लक्ष्मण नायक ने ये शब्द कहे और अमर हो गए।  वन रक्षक की हत्या के एक मनगढ़ंत मामले के आधार पर, नायक को ओडिशा के बेरहामपुर जेल में उसी दिन सुबह मार दिया गया था।

         1989 में इंडिया पोस्ट द्वारा शहीद लक्ष्मण            नायक पर जारी किया गया डाक टिकट

 नायक का जन्म 22 नवंबर 1899 को कोरापुट जिले के टेंटुलीगुमा में हुआ था। जब वे छोटे थे, तब से ही नायक ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभाई थी।  वास्तविक अर्थों में एक समाज-सुधारक, उन्होंने अपने क्षेत्र में आदिवासियों को अपने गहन-अंधविश्वासों से छुटकारा पाने में मदद करने के लिए लगातार प्रयास किया।

 
महात्मा गांधी से प्रभावित होकर वे स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए।  वर्षों तक, उनका प्रभाव मलकानगिरी जैसे आसपास के क्षेत्रों में विस्तारित हुआ।  अगस्त 1942 में शुरू हुए भारत छोड़ो आंदोलन के हिस्से के रूप में, नायक ने इन क्षेत्रों में कई कार्यक्रमों के आयोजन का जिम्मा लिया।  इस क्षेत्र में आदिवासी आंदोलन के बढ़ने के कारण एक अभूतपूर्व जन जागृति पैदा हुई।  21 अगस्त 1942 को, एक बड़े पैमाने पर जुलूस की योजना बनाई गई थी, जिसका समापन कोरापुट के मैथिली पुलिस स्टेशन के शीर्ष पर तिरंगा फहराने के साथ होगा।

जैसे ही जुलूस नायक की अगुवाई में पुलिस स्टेशन पहुंचा, पुलिस बलों ने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों की अंधाधुंध पिटाई शुरू कर दी और फिर उन पर गोलीबारी की, जिससे पांच लोगों की मौत हो गई और 17 अन्य घायल हो गए।  निम्नलिखित छवि दिन की सरकार द्वारा तैयार की गई घटना की रिपोर्ट की संग्रहीत प्रति है:

       रिपोर्ट में मैथिली गोलीबारी में मारे गए लोगों         की सूची शामिल है

यह छवि उन तथ्यों के विरूपण का एक आदर्श चित्रण है जो ब्रिटिश शासन के दौरान दिन का क्रम था।  कुछ खातों के अनुसार, नायक को मृत भी मान लिया गया था (संभवतः इस कारण से छवि में प्वाइंट डी के तहत पांचवीं प्रविष्टि कहती है, "मरने वाले पांचवें व्यक्ति का नाम ज्ञात नहीं है।") क्योंकि वह बेहोश होने के बाद बेहोश हो गया था।  पुलिस अधिकारियों द्वारा बेरहमी से पीटा गया।  जी रामय्या नामक एक वनरक्षक की हत्या करने के मामले में (रिपोर्ट में प्वाइंट ई में उल्लेख किया गया है), नायक को झूठा फंसाया गया और मौत की सजा दी गई।  अदालत के आदेश की प्रति नीचे की छवि में देखी जा सकती है।

     आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी लक्ष्मण                   नाइक को मृत्युदंड

अब तक, जेल अधिकारियों ने जेल में उन तीन कक्षों को संरक्षित किया है जहां शहीद नायक अपने अंतिम दिनों के दौरान रहे थे।  इन कोशिकाओं में, उनके चित्र के अलावा, उनके साहित्यिक कार्यों और जेल अवधि के दौरान लिखे गए पत्रों को भी संरक्षित किया गया है।  वर्ष में दो दिन, 29 मार्च (जिस दिन नायक को फांसी दी गई) और 22 नवंबर (जयंती), स्वतंत्रता सेनानी के सम्मान के प्रतीक के रूप में, आगंतुकों को इन कोशिकाओं का दौरा करने और इस महान स्वतंत्रता सेनानी को उनके सम्मान का भुगतान करने की अनुमति है  ।

शहीद लक्ष्मण नायक जैसे नायकों ने लाखों लोगों को ओडिशा राज्य और भारत भर में प्रेरित करना जारी रखा।  यह समय है कि हम उस व्यक्ति को एक उचित श्रद्धांजलि अर्पित करें, जिसे उसके लोग  गांधी ऑफ मलकानगिरी ’कहते हैं।

दोनों चित्रों सहित लेख को ओडिशा राज्य सरकार और इसके आधिकारिक अभिलेखागार द्वारा प्रकाशित विभिन्न पठन सामग्री से पुनर्प्राप्त किया गया है।

 संकलन : सुशिल म. कुवर

फोटो : प्रतिकारात्म आहे आवर्जून शेअर करू शकता

शुक्रवार, २० नोव्हेंबर, २०२०

17 नवम्बर 1913 के मानगढ हत्याकांड (नरसंहार ) में 1500 से उपर शाहिद हुए आदिवासीयों का इतिहास के पन्ने पर क्यों नाम दर्ज नहीं ?

(ओ अंग्रेजों, हम नहीं झुकेंगे तुम्हारे सामने)

17 नवम्बर 1913 शहादत की याद दिलाता यह मानगढ़ धाम। ये वो क्रांतिकारी लोग थे जिन्होनें अंग्रेजो के सामने घुटने नही टेके। मानगढ़ धाम, ऐसा स्मारक है जो गुरुभक्ति और देशभक्ति को एक साथ दर्शाता है। आज भी पंद्रह सौ से उपर आदिवासियों की शहादत मानगढ़ पहाड़ी के पत्थरों पर उत्कीर्ण हैं। भीलों ने जिस धूनी को जलाया था, वह आज भी जल रही है। आज शहादत के 108 साल पूरे होने पर अंग्रेजो से लड़ाई लड़ने वाले हजारों शहीदों को सादर नमन। आप सदा हमारे लिए प्रेरणा स्त्रोत रहेंगें।
   Mangadh Art

जालियांवाला बाग से भी अध‍िक बर्बर था मानगढ़ का जनसंहार

मानगढ़ धाम 17 नवंबर, 1913 की उस घटना का साक्षी है जिसमें अंग्रेजों ने पंद्रह सौ से अधिक आदिवासियों की जान ले ली थी। लेकिन इतिहास में इसका जिक्र तक नहीं है। क्या इस घटना की उपेक्षा इसलिए की गई क्योंकि इसमें शहीद हुए लोग आदिवासी थे जबकि जालियांवाला बाग में मारे गए लोग गैर-आदिवासी थे?

क्या आप जानते हैं कि जालियांवाला बाग कांड के पहले भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में गुजरात-राजस्थान की सीमा पर अवस्थित बांसवाड़ा जिले के मानगढ़ में अंग्रेज सैनिकों द्वारा करीब पंद्रह सौ आदिवासियों की हत्या की घटना दर्ज है, जिसे इतिहास के पन्नों में यथोचित स्थान नहीं दिया गया है। जालियांवाला बाग कांड को अंगेजों ने 13 अप्रैल 1919 को अंजाम दिया था। इसके करीब 6 साल पहले 17 नवंबर 1913 को राजस्थान-गुजरात सीमा पर स्थित बांसवाड़ा जिले में अंग्रेजों ने करीब 1500 से उपर भील आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया था। परंतु आदिवासियाें की इस शहादत को इतिहासकारों ने तवज्जो नहीं दी। मसलन, राजस्थान के इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे महज “भीलों का उत्पात” की संज्ञा दी है।

   Mangadh Hill Memorial Rajasthan

ब्रिटिश शासन से कभी हार नहीं मानी आदिवासियों ने

दक्षिणी राजस्थान और गुजरात की सीमा पर स्थित राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के बागड़ की मानगढ़ पहाड़ी आदिवासी अस्मिता और उनके ऐतिहासिक बलिदान का स्मारक है। स्थानीय लोग इसे “मानगढ़ धाम” के नाम से जानते हैं। इस स्थान को राष्ट्रीय धरोहर बनाने की मांग बार-बार की जाती रही है। यहां तक कि लोकसभा में भी इसके लिए आवाज उठाई गई परंतु नतीजा सफल नहीं रहा।

दरअसल, मानगढ़ गवाह है भील आदिवासियों के अदम्य साहस और अटूट एकता का जिसके कारण अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पड़े थे। हालांकि यह एकजुटता गोविंद गुरू के नेतृत्व में बनी थी, जो स्वयं लंबाडा (बंजारा समाज) के थे। इसके बावजूद गोविंद गुरू का जीवन भील समुदाय के लिए समर्पित रहा। खास बात यह है कि उनके नेतृत्व में हुए इस ऐतिहासिक विद्रोह के निशाने पर केवल अंग्रेज नहीं थे बल्कि वे स्थानीय रजवाड़े भी थे जिनके जुल्मों-सितम से भील समुदाय के लोग कराह रहे थे।

मानग़ढ़ धाम में हर साल बड़ी संख्या में जुटते हैं आदिवासी
मानगढ हत्याकांड 1500 शहिदो को दिप जलाकर किया नमन

भील और लंबाड़ा समुदाय के लोगों की बहादुरी के कारण ही उन्हें रजवाड़ों और अंग्रेजों ने भी अपनी सेना में शामिल किया था। पूंजा भील, जिसे महाराणा प्रताप अपना दाहिना हाथ मानते थे, की छवि तो मेवाड़ के राजचिह्न तक में दर्ज है।

गोविंद गुरु और उनका सामाजिक चेतना का आंदोलन

यह बात तब की है जब 1857 के सैन्य विद्रोह को एक साल भी नही हुआ था। पूरा देश उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। ऐसे समय में गोविंद गुरु का जन्म डूंगरपुर से करीब 23 किलोमीटर दूर बांसिया गांव में 20 दिसंबर, 1858 को एक लंबाडा (बंजारा) परिवार में हुआ। गोविंद गुरू बचपन से ही साधु प्रवृत्ति के थे। वे भील एवं लंबाड़ा लोगों पर जाने जाने अत्याचारों से आहत हो जाते थे। वे शोषण और दमन से मुक्ति की राह तलाश कर रहे थे।

वे यह समझ चुके थे कि जब तक शोषित समुदायों के लोग एकजुट नहीं होंगे तब तक कुछ नहीं किया जा सकता। इसीलिए वे क्षेत्रीय आदिवासी बसाहटों (बस्तियों) में जाकर उन्हें संगठित करने लगे। वे लोगों को संदेश देते कि रोज स्नान करो, शराब मत पीओ, मांस मत खाओ और चोरी मत करो। वे श्रम को महत्व देते और कहते थे कि खेती करो और मजदूरी से पेट भरो। बच्चों की शिक्षा के लिए भी वे लोगों को प्रेरित करते और स्कूल खोलने का आह्वान करते। वे रजवाड़ाें और उनके द्वारा चलाायी जाने वाली अदालतों से दूर रहने की बात कहते थे। गोविंद गुरू बहुत ही सहज तरीके से लोगों को समझाते थे कि वे न तो जुल्म करें और न जुल्म सहें। वे लोगों को अपनी माटी से प्रेम करने का संदेश देते।

आदिवासियों की एकजुटता से हिलने लगी थीं रजवाड़ों की चूलें

उनके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा से लोग प्रभावित होने लगे और धीरे–धीरे दक्षिणी राजस्थान, गुजरात और मालवा के आदिवासी संगठित होकर एक बड़ी जनशक्ति बन गए। अपने जनाधार को विस्तार देने के लिए गोविंद गुरू ने वर्ष 1883 में “संप सभा” की स्थापना की। भील समुदाय की भाषा में संप का अर्थ होता है – भाईचारा, एकता और प्रेम। संप सभा का पहला अधिवेशन वर्ष 1903 में हुआ।


दरअसल गोविंद गुरू राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के आदिवासियों को शिक्षित बनाकर देश की मुख्य आवाज बनाना चाहते थे। उन्हें लगता था कि भारत की राजनीतिक परिस्थितियों को समझने के लिए अध्ययन करना, चिंतन करना और संगठन स्थापित करना जरूरी है। इसी से शोषण व उत्पीड़न से निपटा जा सकेगा।

एक तरफ गोविंद गुरू के नेतृत्व में आदिवासी जागरूक हो रहे थे तो दूसरी ओर देशी रजवाड़े व उनकी संरक्षक अंग्रेजी हुकूमत आदिवासी एकता को अपने लिए खतरे के रूप में देखने लगी थी।

देशी राजे-महाराजे सदियों से भीलों से बेगारी कराते आए थे। वे अब भी चाहते थे कि भील बेगारी करें। मगर भील अब जाग चुके थे। उन्होंने बेगारी करने से इंकार कर दिया। शराब नहीं पीने के गोविंद गुरू के आह्वान के कारण शराब कारोबारियों का धंधा ठप्प पड़ गया। इन ठेकों से अंग्रेजी हुकूमत को टैक्स के रूप में आमदनी होती थी जो बंद हो गई। सूदखोंरों के दिन भी लद चुके थे क्येांकि लोगों ने उनसे सूद पर पैसे लेने बंद कर दिया।

आदिवासियों में बढ़ती जागरूकता से देशी रजवाड़े प्रसन्न नहीं थे। उन्हें भय सता रहा था कि जागृत आदिवासी कहीं उनकी रियासतों पर कब्जा न कर लें। दूसरी और सूदखोरों व लालची व्यापारियों ने भी रजवाड़ों पर दबाव बनाया। देशी रजवाड़ों के समर्थन में अंग्रेजी हुकूमत भी आदिवासियों के खिलाफ हो गयी।

   Mangadh Artwork

अंग्रेजों के सामने रखी गईं 33 मांगें

गोविंद गुरू के नेतृत्व में आदिवासी एकजुट होकर बदलाव की राह पर अग्रसर थे। 7 दिसंबर, 1908 को संप सभा का वार्षिक अधिवेशन बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से सत्तर किलोमीटर दूर आनन्दपुरी के समीप मानगढ़ धाम में आयोजित हुआ। इसमें हजारों की संख्या में लोग शामिल हुए। मानगढ़ उनका महत्वपूर्ण केंद्र बन गया था।

भीलों ने 1910 तक अंग्रेजों के सामने अपनी 33 मांगें रखीं, जिनमें मुख्य मांगें अंग्रेजों और स्थानीय रजवाड़ों द्वारा करवाई जाने वाली बंधुआ मजदूरी, लगाए जाने वाले भारी लगान और गुरु के अनुयायियों के उत्पीडऩ से जुड़ी थीं। जब अंग्रेजों और रजवाड़ों ने ये मांगें मानने से इनकार कर दिया और वे भगत आंदोलन को तोडऩे में लग गए तो गोविंद गुरु के नेतृत्व में भीलों के संघर्ष ने निर्णायक मोड़ ले लिया।

मांगें ठुकराए जाने के बाद, खासकर मुफ्त में बंधुआ मजदूरी की व्यवस्था को खत्म न किए जाने के कारण नरसंहार से एक माह पहले हजारों भीलों ने मानगढ़ पहाड़ी पर कब्जा कर लिया था और अंग्रेजों से अपनी आजादी का ऐलान करने की कसम खाई थी। अंग्रेजों ने आखिरी चाल चलते हुए सालाना जुताई के लिए सवा रुपये की पेशकश की, लेकिन भीलों ने इसे सिरे से खारिज कर दिया।

सन 1913 में गाेविंद गुरू के नेतृत्व में बड़ी संख्या में आदिवासी मानगढ़ में जुटे। वे अपने साथ राशनपानी भी लाए थे। उनके विरोधियों ने यह अफ़वाह फैला दी कि आदिवासी रियासतों पर कब्जा करने की तैयारी में जुटे हैं।

थाने पर हमला और इंस्‍पेक्‍टर की मौत और किले में बदल गया मानगढ़ हिल

अंग्रेजों को भड़काने वाली सबसे पहली कार्रवाई मानगढ़ के करीब संतरामपुर के थाने पर हमले के रूप में सामने आई जिसे गुरु के दाएं हाथ पुंजा धिरजी पारघी और उनके समर्थकों ने अंजाम दिया। इसमें इंस्पेक्टर गुल मोहम्मद की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद बांसवाड़ा, संतरामपुर, डूंगरपुर और कुशलगढ़ की रियासतों में गुरु और उनके समर्थकों का जोर बढ़ता ही गया, जिससे अंग्रेजों और स्थानीय रजवाड़ों को लगने लगा कि इस आंदोलन को अब कुचलना ही होगा। भीलों को मानगढ़ खाली करने की आखिरी चेतावनी दी गई जिसकी समय सीमा 15 नवंबर, 1913 थी, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। भीलों ने मानगढ़ हिल को किले में तब्दील कर दिया था जिसके भीतर देसी तमंचे और तलवारें जमा थीं और उन्होंने अंग्रेज फौजों का सामना किया।

जब अंग्रेजों ने पंद्रह सौ से अधिक आदिवासियों की जान ले ली

उस समय गुजरात बंबई राज्य के अधीन था। बंबई राज्य का सेना अधिकारी अंग्रेजी सेना लेकर 10 नवंबर 1913 को पहाड़ी के पास पहुंचा। सशस्त्र भीलों ने बलपूर्वक आयुक्त सहित सेना को वापस भेज दिया। सेना पहाड़ी से थोड़ी दूर पर ठहर गई। 12 नवंबर 1913 को एक भील प्रतिनिधि पहाड़ी के नीचे उतरा और भीलों का मांगपत्र सेना के मुखिया को सौंपा मगर बात बन नहीं पाई। समझौता न होने से डूंगरपुर और बांसवाड़ा के रजवाड़ों ने अहमदाबाद के कमिश्नर को सूचित किया कि अगर जल्द ही “‘संप सभा’” के भीलों का दमन न किया गया तो वे उनकी रियासत लूटकर अपनी रियासत खड़ी करेंगे, जिससे अंग्रेजी सरकार की मुश्किलें बढ़ जाएंगी। अंग्रेज अधिकारी सतर्क हो गए। वे भीलवाड़ा की मांग से अवगत थे। इसलिए तुरंत कार्रवाई करते हुए उन्होंने मेवाड़ छावनी से सेना बुला ली। यह सेना 17 नवंबर 1913 को मानगढ़ पहुंची और पहुंचते ही फायरिंग शुरू कर दी। एक के बाद एक कुल पंद्रह सौ लाशें गिरीं। गोविंद गुरु के पांव में गोली लगी। वे वहीं गिर पड़े। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमा चला और उन्हें फांसी की सजा की सजा सुनाई गई। मगर बाद में फांसी को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। अच्छे चाल-चलन के कारण सन 1923 में उन्हें रिहा कर दिया गया। रिहा होने के बाद वे गुजरात के पंचमहल जिला के कंबोई गांव में रहने लगे। जिंदगी के अंतिम दिनों तक जन-कल्याण कार्य में लगे रहे। वहीं सन 1931 में उनका देहांत हो गया। आज भी पंद्रह सौ आदिवासियों की शहादत मानगढ़ पहाड़ी के पत्थरों पर उत्कीर्ण हैं। इस हत्याकांड से इतना खौफ फैल गया कि आजादी के कई दशक बाद तक भील मानगढ़ जाने से कतराते थे। भीलों ने जिस धूनी को जलाया था, वह आज भी जल रही है।

गोविंद गुरु और मानगढ़ हत्याकांड भीलों की स्मृति का हिस्सा बन चुके हैं। बावजूद इसके राजस्थान और गुजरात की सीमा पर बसे बांसवाड़ा-पंचमहाल के सुदूर अंचल में दफन यह ऐतिहासिक त्रासदी भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में एक फुटनोट से ज्यादा की जगह नहीं पाती। वाघेला कहते हैं “सरकार को न सिर्फ मानगढ़ नरसंहार पर बल्कि औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ उभरे ऐसे ही आदिवासी संघर्षों पर बड़े अनुसंधान के लिए अनुदान देना चाहिए। आदिवासियों के जलियांवाला बाग हत्याकांड के साथ ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों?”

जोहार जिंदाबाद..!

संकलन : सुशिल म. कुवर

फोटो : प्रतिकारात्मक आहे आवर्जून शेअर करू शकता

मंगळवार, १० नोव्हेंबर, २०२०

क्रांतिकारक भागोजी नाईक

भागोजी नाईक मूळचे सिन्नर तालुक्यातील नांदूरशिंगोटे गावचे राहणारे. १८५५ साली भिल्ल, महादेव कोळींच्या बंडाला उत्तेजन दिल्याचा ठपका ठेवून त्यांना शिक्षा फर्मावण्यात आली. सुटकेनंतर एक वर्ष राजनिष्ठेचे जामीनपत्र धुडकावून त्यांनी सरळ बंडात उडी घेतली. भागोजी नाईकांच्यानेतृत्वाखाली झालेले उठाव धोकादायक होते. नांदूरशिंगोटेच्या डोंगरात ५० भिल्ल जवानांची तुकडी उभी केली. नाशिक-पुणे मार्गावर दबदबा वाढवला. ज्या घाटात ब्रिटिशांविरुद्ध लढा उभारला त्याला आजही ‘भागोजी नायकाचा घाट’ म्हणून ओळखतात. भागोजीचा पराभव करण्याच्या जिद्दीने नगरचा पोलीस सुप्रीटेंडेंट जे. डब्ल्यू. हेंन्ड्री २० ड्रेसवाले व २० बिगर ड्रेसवाले पोलीस घेऊन चाल करण्यास सिद्ध झाला. मात्र पहिल्याच माऱ्यात हेंन्ड्रीच्या पाठीमागचा पोलीस ठार झाला व क्षणार्धात दुसऱ्या गोळीने हेंन्ड्रीही ठार झाला. वीर भागोजींचा प्रतिकार पाहून बाकी पोलीस अधिकारी माघारी फिरले. 

भागोजींनी हेंन्ड्रीचा निःपात केला या बातमीने भिल्ल, महादेव कोळी बंडखोरांमध्ये उत्साह संचारला. सुरगण्याच्या पवारांकडे भिल्ल, महादेव कोळी क्रांतिकारक साहाय्य मिळविण्यासाठी जात असल्याचे समजल्यावर कॅप्टन नूतालने बंडखोरावर चाल केली. मात्र आदल्या दिवशीच बंडखोर त्र्यंबकेश्वरचा खजिना लुटून दुसरीकडे गेले होते. याची चीड येऊन डोंगराळ भागातील अनेक महादेव कोळी लोकांना पकडून फाशी देण्यात आली. १२ नोव्हेंबर १८५७ रोजी संध्याकाळी ब्रिटिशांना बातमी मिळाली की पेठ महालात महादेव कोळींचा उठाव झाला, हरसुलचा खजिना लुटला आणि सरकारी कार्यालयाची होळी झाली. नूताल तिकडे वळला खरा मात्र तोवर क्रांतिकारकांनी धरमपूरला पळून गेले. खजिन्यातील सारी मालमत्ता इंग्रजांच्या हातून गेली होती. त्यावेळी भिल्ल, महादेव कोळी व रामोशी जमातीच्या आदिवासी क्रांतिकारकांची संख्या २ हजारवर गेली होती. नूतालच्या हल्ल्याने अनेक आदिवासी वीर धारातीर्थी पडले व पकडले गेले. बंडाचे वातावरण निर्माण करणे व बंडखोरांना साहाय्य करणे हे आरोप ठेवून पेठचा राजे भगवंतराव भाऊराजे यांना ब्रिटिशांनी फाशी दिली. कॅ. नूताल दक्षिणेकडे वळला. त्याचा सामना भागोजीचा भाऊ महिपती व पाचशे आदिवासी योद्धयांशी लढावे लागले. मात्र यात महिपतीला आपल्या प्राणाची आहुती द्यावी लागली.

१८५९ मध्ये भागोजी व हरजीने इंग्रजांची नासधूस करण्याचा सपाटा लावला. ५ जुलैला संगमनेच्या अभोरदरा येथे भागोजीच्या तुकड्यांना गाठून नूतालने चाल केली यात भागीजींचा मुलगा यशवंतां धारातीर्थी पडला. भागोजीच्या सैन्याने ब्रिटिश हद्द ओलांडून निजामाला जाऊन मिळायचे ठरवले व पलायन केले. जाताना कोपरगावचा इंग्रजांचा खजिना लुटला. 

वीर भागोजींना जिंकण्यासाठी ब्रिटिशांनी खास मेजर फ्रॅक्साचरची नेमणूक केली. जागोजागी गुप्तहेर पेरले. जागोजागी फितुरी आणि इंग्रजांच्या आमिषाने भिल्ल, महादेव कोळी लढवय्यांचा पराभव होऊ लागला. याच सुमारास गुप्तहेराने ब्रिटिशांना बातमी दिली, भागोजी व त्यांचे लोक सिन्नरच्या माठसाखर डोंगराखाली मुक्कामी आहेत. चौफेर भागोजींच्या सैन्याची नाकेबंदी झाली, बंडखोर माऱ्याच्या टप्प्यात आल्यावर गोळ्या झाडल्या गेल्या, भागोजी व त्यांच्या सैन्याला हालचालीलाही वेळ मिळाला नाही. या गोळीबारात भागोजींसह ४५ लोक मारले गेले. यानंतर भागोजींच्या कुटुंबाची कत्तल करण्यात आली. वीर भागोजींची समाधी नांदूरशिंगोटेपासून एक मैलावर आहे. त्यांच्या घराची लाकडे निमीन गावच्या देवीच्या देवळास लावली आहेत. हेच भागोजी नाईकांचे स्मारक…

संदर्भ- स्वातंत्र्यलढ्यातील आदिवासी क्रांतिकारक: डॉ. गोविंद गारे


संकलन: सुशिल म. कुवर

फोटो: प्रतिकारात्मक आहे आवर्जून शेअर करू शकता

शनिवार, ७ नोव्हेंबर, २०२०

आद्यक्रांतिकारक राघोजी भांगरे यांच्या जयंती निमित्त विनम्र अभिवादन

क्रांतिकारक - राघोजी भांगरे यांचा इतिहास:

परकीय सत्तेशी प्राणपणाने लढणा-या आदिवासी कोळी - महादेव जमातीच्या बंडखोरांनी आणि त्यांच्या नायकांनी स्वातंत्र्य चळवळीत मोठे योगदान दिले आहे. राघोजी भांगरे हा या परंपरेतील एक भक्कम, ताकदवान, धाडसी बंडखोर नेता होता. राघोजींचा जन्म महादेव कोळी जमातीत झाला.

इंग्रजांचे अत्याचार

पेशवाईचा अस्त झाल्यानंतर इंग्रज सरकारचे राज्य सुरू झाले. पेशवाई बुडाल्यानंतर (१८१८) इंग्रजांनी महादेव कोळ्यांचे सह्याद्रीतील किल्ले, घाटमाथे राखण्याचे अधिकार काढून घेतले. किल्ल्याच्या शिलेदा-या काढल्या. बुरुज नष्ट केले. वतनदा-या काढल्या. पगार कमी केले. परंपरागत अधिकार काढून घेतल्याने महादेव कोळ्यांमध्ये मोठा असंतोष निर्माण झाला.

सावकारांचे अत्याचार

त्यातच पुढे १८२८ मध्ये शेतसाराही वाढविण्यात आला. शेतसारा वसुलीमुळे गोरगरीब आदिवासींना रोख पैशाची गरज भासू लागली. ते सावकार, वाण्यांकडून भरमसाठ दराने कर्जे घेऊ लागले.

कर्जाची वसुली करताना सावकार मनमानी करू लागले. कर्जाच्या मोबदल्यात जमिनी बळकावू लागले. दांडगाई करू लागले. त्यामुळे लोक भयंकर चिडले.

अत्याचारा विरूध्द बंडाची सुरुवात

त्यातूनच सावकार आणि इंग्रजांविरुद्ध बंडाला त्यांनी सुरुवात केली. बंडखोर नेत्यांनी या बंडाचे नेतृत्त्व केले.
अकोले तालुक्यातील रामा किरवा याला पकडून नगर येथील तुरुंगात फाशी देण्यात आली (१८३०). यातून महादेव कोळी बंडखोरांत दहशत पसरेल असे इंग्रजांना वाटत होते.

राघोजी भांगरे यांचे बंड

रामाचा जोडीदार राघोजी भांगरे याने सरकारविरोधी बंडात सामील होऊ नये, यासाठी त्याला मोठ्या नोकरीवर घेतले. परंतु नोकरीत पदोपदी होणारा अपमान आणि काटछाट यांमुळे राघोजी भयंकर चिडला. नोकरीला लाथ मारून त्याने बंडात उडी घेतली.

उत्तर पुणे व नगर जिल्ह्यात राघोजी आणि बापू भांगरे यांच्या नेतृत्वाखाली उठाव सुरु झाला. १८३८ मध्ये रतनगड आणि सनगर किल्ल्याच्या परिसरात राघोजीने मोठे बंड उभारले.

बंडा विरूध्द इंग्रजांचा कडेकोट बंदोबस्त

कॅप्टन मार्किनटोशने हे बंड मोडण्यासाठी सर्व अवघड खिंडी, दऱ्या, घाटरस्ते, जंगले यांची बारीकसारीक माहिती मिळविली. बंडखोरांची गुपिते बाहेर काढली. परंतु बंडखोर नमले नाहीत. उलट बंडाने व्यापक आणि उग्र रूप धरण केले. इंग्रजांनी कुमक वाढविली. गावे लुटली. मार्ग रोखून धरले. माहितीच्या आधारावर इंग्रजांनी ८० लोकांना ताब्यात घेऊन नगरच्या तुरुंगात टाकले

फंदफितुरी - बक्षीस

दहशतीमुळे काही लोक उलटले. फंदफितुरीमुळे राघोजीचा उजवा हात समजला जाणारा बापुजी मारला गेला. पुढे राघोजीला पकडण्यासाठी इंग्रज सरकारने त्या काळी पाच हजारांचे बक्षीस जाहीर केले.

ठाणे ग्याझेटियर्सच्या जुन्या आवृत्तीत 'ऑक्टोबर १८४३ मध्ये राघोजी मोठी टोळी घेऊन घाटावरून खाली उतरला आणि त्याने अनेक दरोडे घातले' असा उल्लेख आहे.

मारवाड्यांवर छापे

राघोजीने मारवाड्यांवर छापे घातले. त्यांनी पोलिसांत तक्रार केली. ठावठीकाणा विचारायला आलेल्या पोलिसांना माहिती न दिल्याने चिडलेल्या पोलिसांनी त्यांच्या आईचे निर्दयीपणे हाल केले. त्यामुळे चिडलेल्या राघोजीने टोळी उभारून नगर व नाशिकमध्ये इंग्रजांना सळो को पळो करून सोडले. हाती लागलेल्या प्रत्येक सावकाराचे नाक कापले. राघोजीच्या भयाने सावकार गाव सोडून पळाले, असा उल्लेख अहमदनगरच्या ग्याझेटियर्समध्ये सापडतो.

साता-याच्या पदच्युत छत्रपतींना पुन्हा सत्तेवर आणण्यासाठी इंग्रजांविरुद्ध उठावाचे जे व्यापक प्रयत्न चालले होते. त्याच्याशी राघोजीचा संबंध असावा, असे अभ्यासकांचे मत आहे. बंडासाठी पैसा उभारणे समाजावर पकड ठेवणे व छळ करणा-या सावकारांना धडा शिकविणे या हेतूने राघोजी खंडणी वसूल करीत असे.

राघोजीच्या बंडानंतर सुमारे पंचवीस वर्षांनी वासुदेव बळवंत फडके यांचे बंड सुरु झाले. नोव्हेंबर १८४४ ते मार्च १८४५ या काळात राघोजीचे बंड शिगेला पोचले होते. बंड उभारल्यानंतर राघोजीने स्वतःच 'आपण शेतकरी, गरिबांचे कैवारी असून सावकार व इंग्रज सरकारचे वैरी आहोत,' अशी भूमिका जाहीर केली होती.

चारीत्र्यवान राघोजी भांगरे

स्त्रीयांबद्दल राघोजीला अत्यंत आदर होता. टोळीतील कुणाचेही गैरवर्तन तो खपवून घेत नसे. शौर्य व प्रामाणिक नीतीमत्ता याला धर्मिकपणाची जोड त्याने दिली. महादेवावर त्याची अपार श्रद्धा व भक्ती होती. भीमाशंकर, वज्रेश्वरी, त्र्यंबकेश्वर, नाशिक, पंढरपूर येथे बंडांच्या काळात तो दर्शनाला गेला होता. त्याच्या गळ्यात वाघाची कातडी असलेल्या पिशवीत दोन चांदीचे ताईत असत. त्याच्या बंडाला ईश्वरी संरक्षण आणि आशीर्वाद असल्याची त्याची स्वतःची धारणा होती.

अटक - फाशी

देवजी हा त्याचा प्रमुख सल्लागार आणि अध्यात्मिक गुरुदेखील होता. मे १८४५ मध्ये गोळी लागून देवाजी ठार झाला. त्यांच्या जवळचे प्रमुख लोक ठार होत गेले त्यामुळे राघोजी भांगरे अस्वस्थ होवून खचले असावे. नंतर त्यांनी आपला रस्ता बदलला. नंतरच्या काळात तर गोसाव्याच्या वेशात ते तीर्थयात्रा करू लागले. विठ्ठलाच्या दर्शनाला त्यांनी दिंडीतून जायचे ठरविले. ईश्वरी शक्तीची तलवार, चांदीचे ताईत आणि लांब केस याची साथ त्यांनी आयुष्यभर कधीही सोडली.

२ जानेवारी १८४८ या दिवशी इंग्रज अधिकारी लेफ्टनंट गेल याने चंद्रभागेच्या काठी राघोजीला अटक केली. कसलाही विरोध न करता राघोजीने स्वतःला पोलिसांच्या स्वाधीन केले.

साखळदंडात करकचून बांधून त्याला ठाण्याला आणले. त्याच्यावर राजद्रोहाचा खटला भरण्यात आला. विशेष न्यायाधीशांसमोर राजद्रोहाच्या खटल्याची सुनावणी झाली. राघोजी अत्यंत स्वाभिमानी होता. त्यांला इंग्रजी अधिकाऱ्यांनी वकील मिळू दिला नाही.  त्याने स्वतःच बाजू मांडली. 

दुर्दैव

दुर्दैवाची गोष्ट म्हणजे, या निधड्या छातीच्या शूर वीराचे वकील पत्र घ्यायला कोणीही पुढे आले नाही. वकील न मिळाल्याने राघोजीची बाजू न मांडली जाताच एकतर्फी सुनावणी झाली! राघोजीला दोषी ठरविले गेले. त्याला फाशीची शिक्षा ठोठाविण्यात आली.

राघोजी खरा वीर पुरुष होता. बंडाच्या तीन पिढ्यांचा त्याला इतिहास होता. अभिजनवादी इतिहासकारांचे या क्रांतीकारकाच्या लढ्याकडे काहीसे दुर्लक्षच झाले.

"फाशी देण्यापेक्षा मला तलवारीने किंवा बंदुकीने एकदम वीर पुरुषासारखे मरण द्या"

असे त्याने न्यायाधीशांना सांगितले. ते न ऐकता सरकारने बंडाचा झेंडा फडकवणा-या या शूर वीराला २ मे १८४८ रोजी ठाणे येथील मध्यवर्ती कारागृहात फासावर चढविण्यात आले.

अकोले [जि.अहमदनगर] तालुक्याच्या या भूमिपुत्राच्या बंडाने पुढच्या काळातील क्रांतीकारकांना प्रेरणा मिळाली. त्यातूनच अकोले तालुक्याने स्वातंत्र्यपूर्व काळात अनेक चळवळीमध्ये महत्वाची भूमिका बजावल्याचे इतिहास सांगतो.

[ हा लेख लिहिताना ठाणे व अहमदनगर जिल्ह्याचे ग्याझेट व 'सह्याद्रीतील आदिवासी महादेव कोळी' हे पुस्तक संदर्भासाठी वापरले आहे.]

क्रांतीसुर्य राघोजी भांगरेचा जीवनपट
         क्रांतिवीर राघोजी भांगरा-भांगरे

१)राघोजी भांगरेचा जन्म - ८/नोव्हेंबर/१८०५
२)आईचे नाव - रमाबाई
३)वङिलांचे नाव - रामजी भांगरे
४)मुळ गाव - देवगाव, ता.अकोले, जि.अ-नगर
५)क्रांतीचा उदय - १८२६
६)क्रांतीची प्रतिज्ञा - १८२७
७)सह्याय्यक सल्लागार - देवजी आव्हाङ
८)अंगरक्षक - राया ठाकर
९)राघोजीचे उठाव उग्र - १८२८
१०)इंग्रज सत्तेचा विरोधात - १८३०
११)भिल्ल समाजाची मदत - १८३०
१२)राजे उमाजी नाईकांना अटक - १८३१
१३)राघोजींना पकङण्यास ५ हजारांचे बक्षिस - १८३२
१४)रतनगङ परिसरात उठाव - १८३८
१५)बापु भांगरेस अटक - १८३८
१६)गोर्यांचा मोठ्या फौजा दाखल - १८४३
१७)राजे प्रतापसिंग भोसले यांची भेट - १८४४
१८)जुन्नरचा उठाव - १८४५
१९)उठावाच्या ठावठिकाणाचे शोध - १८४६
२०)राघोजीस पकङण्यास रेजिमेंटल दाखल - १८४७
२१)पंढरपुरमध्ये दर्शनासाठी - १८४८
२२)क्रांतीविर राघोजी भांगरेना फाशी - २ मे १८४८.
              
या महान क्रांतिकारकाच्या विनम्र स्मृतिस विनम्र अभिवादन कोटी कोटी प्रणाम...!

#Raghoji #adivasi #tribalnation

- सुशिल म.कुवर
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फोटो: प्रतिकारात्मक आहे आवर्जून शेअर करू शकता