शुक्रवार, २० नोव्हेंबर, २०२०

17 नवम्बर 1913 के मानगढ हत्याकांड (नरसंहार ) में 1500 से उपर शाहिद हुए आदिवासीयों का इतिहास के पन्ने पर क्यों नाम दर्ज नहीं ?

(ओ अंग्रेजों, हम नहीं झुकेंगे तुम्हारे सामने)

17 नवम्बर 1913 शहादत की याद दिलाता यह मानगढ़ धाम। ये वो क्रांतिकारी लोग थे जिन्होनें अंग्रेजो के सामने घुटने नही टेके। मानगढ़ धाम, ऐसा स्मारक है जो गुरुभक्ति और देशभक्ति को एक साथ दर्शाता है। आज भी पंद्रह सौ से उपर आदिवासियों की शहादत मानगढ़ पहाड़ी के पत्थरों पर उत्कीर्ण हैं। भीलों ने जिस धूनी को जलाया था, वह आज भी जल रही है। आज शहादत के 108 साल पूरे होने पर अंग्रेजो से लड़ाई लड़ने वाले हजारों शहीदों को सादर नमन। आप सदा हमारे लिए प्रेरणा स्त्रोत रहेंगें।
   Mangadh Art

जालियांवाला बाग से भी अध‍िक बर्बर था मानगढ़ का जनसंहार

मानगढ़ धाम 17 नवंबर, 1913 की उस घटना का साक्षी है जिसमें अंग्रेजों ने पंद्रह सौ से अधिक आदिवासियों की जान ले ली थी। लेकिन इतिहास में इसका जिक्र तक नहीं है। क्या इस घटना की उपेक्षा इसलिए की गई क्योंकि इसमें शहीद हुए लोग आदिवासी थे जबकि जालियांवाला बाग में मारे गए लोग गैर-आदिवासी थे?

क्या आप जानते हैं कि जालियांवाला बाग कांड के पहले भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में गुजरात-राजस्थान की सीमा पर अवस्थित बांसवाड़ा जिले के मानगढ़ में अंग्रेज सैनिकों द्वारा करीब पंद्रह सौ आदिवासियों की हत्या की घटना दर्ज है, जिसे इतिहास के पन्नों में यथोचित स्थान नहीं दिया गया है। जालियांवाला बाग कांड को अंगेजों ने 13 अप्रैल 1919 को अंजाम दिया था। इसके करीब 6 साल पहले 17 नवंबर 1913 को राजस्थान-गुजरात सीमा पर स्थित बांसवाड़ा जिले में अंग्रेजों ने करीब 1500 से उपर भील आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया था। परंतु आदिवासियाें की इस शहादत को इतिहासकारों ने तवज्जो नहीं दी। मसलन, राजस्थान के इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे महज “भीलों का उत्पात” की संज्ञा दी है।

   Mangadh Hill Memorial Rajasthan

ब्रिटिश शासन से कभी हार नहीं मानी आदिवासियों ने

दक्षिणी राजस्थान और गुजरात की सीमा पर स्थित राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के बागड़ की मानगढ़ पहाड़ी आदिवासी अस्मिता और उनके ऐतिहासिक बलिदान का स्मारक है। स्थानीय लोग इसे “मानगढ़ धाम” के नाम से जानते हैं। इस स्थान को राष्ट्रीय धरोहर बनाने की मांग बार-बार की जाती रही है। यहां तक कि लोकसभा में भी इसके लिए आवाज उठाई गई परंतु नतीजा सफल नहीं रहा।

दरअसल, मानगढ़ गवाह है भील आदिवासियों के अदम्य साहस और अटूट एकता का जिसके कारण अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पड़े थे। हालांकि यह एकजुटता गोविंद गुरू के नेतृत्व में बनी थी, जो स्वयं लंबाडा (बंजारा समाज) के थे। इसके बावजूद गोविंद गुरू का जीवन भील समुदाय के लिए समर्पित रहा। खास बात यह है कि उनके नेतृत्व में हुए इस ऐतिहासिक विद्रोह के निशाने पर केवल अंग्रेज नहीं थे बल्कि वे स्थानीय रजवाड़े भी थे जिनके जुल्मों-सितम से भील समुदाय के लोग कराह रहे थे।

मानग़ढ़ धाम में हर साल बड़ी संख्या में जुटते हैं आदिवासी
मानगढ हत्याकांड 1500 शहिदो को दिप जलाकर किया नमन

भील और लंबाड़ा समुदाय के लोगों की बहादुरी के कारण ही उन्हें रजवाड़ों और अंग्रेजों ने भी अपनी सेना में शामिल किया था। पूंजा भील, जिसे महाराणा प्रताप अपना दाहिना हाथ मानते थे, की छवि तो मेवाड़ के राजचिह्न तक में दर्ज है।

गोविंद गुरु और उनका सामाजिक चेतना का आंदोलन

यह बात तब की है जब 1857 के सैन्य विद्रोह को एक साल भी नही हुआ था। पूरा देश उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। ऐसे समय में गोविंद गुरु का जन्म डूंगरपुर से करीब 23 किलोमीटर दूर बांसिया गांव में 20 दिसंबर, 1858 को एक लंबाडा (बंजारा) परिवार में हुआ। गोविंद गुरू बचपन से ही साधु प्रवृत्ति के थे। वे भील एवं लंबाड़ा लोगों पर जाने जाने अत्याचारों से आहत हो जाते थे। वे शोषण और दमन से मुक्ति की राह तलाश कर रहे थे।

वे यह समझ चुके थे कि जब तक शोषित समुदायों के लोग एकजुट नहीं होंगे तब तक कुछ नहीं किया जा सकता। इसीलिए वे क्षेत्रीय आदिवासी बसाहटों (बस्तियों) में जाकर उन्हें संगठित करने लगे। वे लोगों को संदेश देते कि रोज स्नान करो, शराब मत पीओ, मांस मत खाओ और चोरी मत करो। वे श्रम को महत्व देते और कहते थे कि खेती करो और मजदूरी से पेट भरो। बच्चों की शिक्षा के लिए भी वे लोगों को प्रेरित करते और स्कूल खोलने का आह्वान करते। वे रजवाड़ाें और उनके द्वारा चलाायी जाने वाली अदालतों से दूर रहने की बात कहते थे। गोविंद गुरू बहुत ही सहज तरीके से लोगों को समझाते थे कि वे न तो जुल्म करें और न जुल्म सहें। वे लोगों को अपनी माटी से प्रेम करने का संदेश देते।

आदिवासियों की एकजुटता से हिलने लगी थीं रजवाड़ों की चूलें

उनके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा से लोग प्रभावित होने लगे और धीरे–धीरे दक्षिणी राजस्थान, गुजरात और मालवा के आदिवासी संगठित होकर एक बड़ी जनशक्ति बन गए। अपने जनाधार को विस्तार देने के लिए गोविंद गुरू ने वर्ष 1883 में “संप सभा” की स्थापना की। भील समुदाय की भाषा में संप का अर्थ होता है – भाईचारा, एकता और प्रेम। संप सभा का पहला अधिवेशन वर्ष 1903 में हुआ।


दरअसल गोविंद गुरू राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के आदिवासियों को शिक्षित बनाकर देश की मुख्य आवाज बनाना चाहते थे। उन्हें लगता था कि भारत की राजनीतिक परिस्थितियों को समझने के लिए अध्ययन करना, चिंतन करना और संगठन स्थापित करना जरूरी है। इसी से शोषण व उत्पीड़न से निपटा जा सकेगा।

एक तरफ गोविंद गुरू के नेतृत्व में आदिवासी जागरूक हो रहे थे तो दूसरी ओर देशी रजवाड़े व उनकी संरक्षक अंग्रेजी हुकूमत आदिवासी एकता को अपने लिए खतरे के रूप में देखने लगी थी।

देशी राजे-महाराजे सदियों से भीलों से बेगारी कराते आए थे। वे अब भी चाहते थे कि भील बेगारी करें। मगर भील अब जाग चुके थे। उन्होंने बेगारी करने से इंकार कर दिया। शराब नहीं पीने के गोविंद गुरू के आह्वान के कारण शराब कारोबारियों का धंधा ठप्प पड़ गया। इन ठेकों से अंग्रेजी हुकूमत को टैक्स के रूप में आमदनी होती थी जो बंद हो गई। सूदखोंरों के दिन भी लद चुके थे क्येांकि लोगों ने उनसे सूद पर पैसे लेने बंद कर दिया।

आदिवासियों में बढ़ती जागरूकता से देशी रजवाड़े प्रसन्न नहीं थे। उन्हें भय सता रहा था कि जागृत आदिवासी कहीं उनकी रियासतों पर कब्जा न कर लें। दूसरी और सूदखोरों व लालची व्यापारियों ने भी रजवाड़ों पर दबाव बनाया। देशी रजवाड़ों के समर्थन में अंग्रेजी हुकूमत भी आदिवासियों के खिलाफ हो गयी।

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अंग्रेजों के सामने रखी गईं 33 मांगें

गोविंद गुरू के नेतृत्व में आदिवासी एकजुट होकर बदलाव की राह पर अग्रसर थे। 7 दिसंबर, 1908 को संप सभा का वार्षिक अधिवेशन बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से सत्तर किलोमीटर दूर आनन्दपुरी के समीप मानगढ़ धाम में आयोजित हुआ। इसमें हजारों की संख्या में लोग शामिल हुए। मानगढ़ उनका महत्वपूर्ण केंद्र बन गया था।

भीलों ने 1910 तक अंग्रेजों के सामने अपनी 33 मांगें रखीं, जिनमें मुख्य मांगें अंग्रेजों और स्थानीय रजवाड़ों द्वारा करवाई जाने वाली बंधुआ मजदूरी, लगाए जाने वाले भारी लगान और गुरु के अनुयायियों के उत्पीडऩ से जुड़ी थीं। जब अंग्रेजों और रजवाड़ों ने ये मांगें मानने से इनकार कर दिया और वे भगत आंदोलन को तोडऩे में लग गए तो गोविंद गुरु के नेतृत्व में भीलों के संघर्ष ने निर्णायक मोड़ ले लिया।

मांगें ठुकराए जाने के बाद, खासकर मुफ्त में बंधुआ मजदूरी की व्यवस्था को खत्म न किए जाने के कारण नरसंहार से एक माह पहले हजारों भीलों ने मानगढ़ पहाड़ी पर कब्जा कर लिया था और अंग्रेजों से अपनी आजादी का ऐलान करने की कसम खाई थी। अंग्रेजों ने आखिरी चाल चलते हुए सालाना जुताई के लिए सवा रुपये की पेशकश की, लेकिन भीलों ने इसे सिरे से खारिज कर दिया।

सन 1913 में गाेविंद गुरू के नेतृत्व में बड़ी संख्या में आदिवासी मानगढ़ में जुटे। वे अपने साथ राशनपानी भी लाए थे। उनके विरोधियों ने यह अफ़वाह फैला दी कि आदिवासी रियासतों पर कब्जा करने की तैयारी में जुटे हैं।

थाने पर हमला और इंस्‍पेक्‍टर की मौत और किले में बदल गया मानगढ़ हिल

अंग्रेजों को भड़काने वाली सबसे पहली कार्रवाई मानगढ़ के करीब संतरामपुर के थाने पर हमले के रूप में सामने आई जिसे गुरु के दाएं हाथ पुंजा धिरजी पारघी और उनके समर्थकों ने अंजाम दिया। इसमें इंस्पेक्टर गुल मोहम्मद की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद बांसवाड़ा, संतरामपुर, डूंगरपुर और कुशलगढ़ की रियासतों में गुरु और उनके समर्थकों का जोर बढ़ता ही गया, जिससे अंग्रेजों और स्थानीय रजवाड़ों को लगने लगा कि इस आंदोलन को अब कुचलना ही होगा। भीलों को मानगढ़ खाली करने की आखिरी चेतावनी दी गई जिसकी समय सीमा 15 नवंबर, 1913 थी, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। भीलों ने मानगढ़ हिल को किले में तब्दील कर दिया था जिसके भीतर देसी तमंचे और तलवारें जमा थीं और उन्होंने अंग्रेज फौजों का सामना किया।

जब अंग्रेजों ने पंद्रह सौ से अधिक आदिवासियों की जान ले ली

उस समय गुजरात बंबई राज्य के अधीन था। बंबई राज्य का सेना अधिकारी अंग्रेजी सेना लेकर 10 नवंबर 1913 को पहाड़ी के पास पहुंचा। सशस्त्र भीलों ने बलपूर्वक आयुक्त सहित सेना को वापस भेज दिया। सेना पहाड़ी से थोड़ी दूर पर ठहर गई। 12 नवंबर 1913 को एक भील प्रतिनिधि पहाड़ी के नीचे उतरा और भीलों का मांगपत्र सेना के मुखिया को सौंपा मगर बात बन नहीं पाई। समझौता न होने से डूंगरपुर और बांसवाड़ा के रजवाड़ों ने अहमदाबाद के कमिश्नर को सूचित किया कि अगर जल्द ही “‘संप सभा’” के भीलों का दमन न किया गया तो वे उनकी रियासत लूटकर अपनी रियासत खड़ी करेंगे, जिससे अंग्रेजी सरकार की मुश्किलें बढ़ जाएंगी। अंग्रेज अधिकारी सतर्क हो गए। वे भीलवाड़ा की मांग से अवगत थे। इसलिए तुरंत कार्रवाई करते हुए उन्होंने मेवाड़ छावनी से सेना बुला ली। यह सेना 17 नवंबर 1913 को मानगढ़ पहुंची और पहुंचते ही फायरिंग शुरू कर दी। एक के बाद एक कुल पंद्रह सौ लाशें गिरीं। गोविंद गुरु के पांव में गोली लगी। वे वहीं गिर पड़े। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमा चला और उन्हें फांसी की सजा की सजा सुनाई गई। मगर बाद में फांसी को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। अच्छे चाल-चलन के कारण सन 1923 में उन्हें रिहा कर दिया गया। रिहा होने के बाद वे गुजरात के पंचमहल जिला के कंबोई गांव में रहने लगे। जिंदगी के अंतिम दिनों तक जन-कल्याण कार्य में लगे रहे। वहीं सन 1931 में उनका देहांत हो गया। आज भी पंद्रह सौ आदिवासियों की शहादत मानगढ़ पहाड़ी के पत्थरों पर उत्कीर्ण हैं। इस हत्याकांड से इतना खौफ फैल गया कि आजादी के कई दशक बाद तक भील मानगढ़ जाने से कतराते थे। भीलों ने जिस धूनी को जलाया था, वह आज भी जल रही है।

गोविंद गुरु और मानगढ़ हत्याकांड भीलों की स्मृति का हिस्सा बन चुके हैं। बावजूद इसके राजस्थान और गुजरात की सीमा पर बसे बांसवाड़ा-पंचमहाल के सुदूर अंचल में दफन यह ऐतिहासिक त्रासदी भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में एक फुटनोट से ज्यादा की जगह नहीं पाती। वाघेला कहते हैं “सरकार को न सिर्फ मानगढ़ नरसंहार पर बल्कि औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ उभरे ऐसे ही आदिवासी संघर्षों पर बड़े अनुसंधान के लिए अनुदान देना चाहिए। आदिवासियों के जलियांवाला बाग हत्याकांड के साथ ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों?”

जोहार जिंदाबाद..!

संकलन : सुशिल म. कुवर

फोटो : प्रतिकारात्मक आहे आवर्जून शेअर करू शकता

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