बुधवार, २९ जून, २०२२

अंग्रजों खिलाफ आजादी की पहली लडाई और जल, जंगल, जमीन की हिफाजत के लिए आदिवासी विरों ने दे दी अपनी कुर्बानी

अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई के रूप में मनाया जाता है हूल क्रांति दिवस 30 जून को मनाया जाता है। इसे संथाल विद्रोह भी कहा जाता है। आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ जम के लड़ने वाले आदिवासियों की संघर्ष गाथा और उनके बलिदान को याद करने का यह खास दिन है।


जिस दिन झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हथियार उठाया था यानी विद्रोह किया था, उस दिन को हूल क्रांति दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन की कहानी आदिवासी वीर सिद्धू, कान्हू और चाँद, भैरव से जुड़ी हुई है। सिद्धू, कान्हू और चाँद, भैरव झारखंड के संथाल आदिवासी थे। देश को आज़ादी दिलाने में इनकी अहम भूमिका थी लेकिन इन्हें पूरा भारतवर्ष नहीं जान पाया।

1857 की क्रांति से भी पहले किया था विद्रोह

भारत की आज़ादी के बारे में जब भी कोई बात होती है तो 1857 के विद्रोह को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पहला विद्रोह बताया जाता है लेकिन इससे पहले 30 जून 1855 को सिद्धू, कान्हू के नेतृत्व में मौजूदा साहेबगंज ज़िले के भगनाडीह गाँव से विद्रोह शुरू हुआ था। इस मौक़े पर सिद्धू ने नारा दिया था ‘करो या मरो, अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो’ इसी दिन को बहुजन आंदोलन में हूल दिवस कहा जाता है। 

50,000 आदिवासियों ने लड़ी थी जंग


इस दिन सिद्धू-कान्हू और चाँद एवं भैरव ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी बिगुल फूंका था। इन्होंने संथाल परगना के भगनाडीह में लगभग 50 हज़ार आदिवासियों को इकट्ठा करके अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। अंग्रेज़ों को यह रास नहीं आया और भीषण युद्ध हुआ, जिसमें 20 हज़ार आदिवासी शहीद हो गए। शुरुआत में संथालों को सफलता तो मिली लेकिन बाद में अंग्रेज़ों ने इन पर क़ाबू पा लिया। इसके बाद अंग्रेज़ों ने संथालों के हर गाँव पर हमला किया। अंग्रेज़ यह सुनिश्चित कर लेना चाहते थे कि एक भी विद्रोही संथाल आदिवासी नहीं बचना चाहिए।

फांसी के तख्ते पर झूल गए संथाल शहीद वीर सिद्धू-कान्हू

ये आंदोलन निर्दयी तरीक़े से दबा दिया गया। इसके बाद सिद्धू, कान्हू को 26 जुलाई 1855 को ब्रिटिश सरकार ने फाँसी दे दी लेकिन इस आंदोलन ने औपनिवेशिक शासन को नीति में बड़ा बदलाव करने को मजबूर कर दिया। इस दिन को आदिवासी समाज पूरे उल्लास से मनाता है और अपने वीर सिद्धू, कान्हू और चाँद-भैरव को याद करता है। सिद्धू-कान्हू के नाम से झारखंड में एक विश्वविद्यालय भी 1996 में शुरू किया गया। इस वीरता के सम्मान में 2002 में भारतीय डाक विभाग ने डाक टिकट भी जारी किया था। 


भारत के मूलनिवासियों के इस साहस को आज पूरा देश सलाम कर रहा है लेकिन दुख इस बात का है कि इस देश के मनुवादी इतिहासकारों ने इन्हें कभी वो सम्मान नहीं दिया जिसके ये महानायक हकदार थे।

संकलन : सुशिल म. कुवर

तसवीर : प्रतिकारात्मक है शेअर कर सकते


30 जून (संताल हुल) दिवस पर विशेष...

अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ विद्रोह की जब चर्चा होती है, तो विद्रोह की पहली लड़ाई 1769 में झारखंड के रघुनाथ महतो के नेतृत्व में ‘चुहाड़ विद्रोह’ से शुरू हुआ। विद्रोह, 1771 में तिलका मांझी का ‘हूल’ से सफर तय करता हुआ, 1820-21 का पोटो हो के नेतृत्व में ‘हो विद्रोह’, 1831-32 में बुधु भगत, जोआ भगत और मदारा महतो के नेतृत्व में ‘कोल विद्रोह’, 1855 में सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में ‘संताल विद्रोह’ और 1895 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए ‘उलगुलान’ ने अंग्रजों की नींद उड़ा दी थी।

इन विद्रोहों में जून का महीना झारखंड के लिए विशेष महत्व इसलिए रखता है क्योंकि इसी महीने के 30 जून को ‘संताल विद्रोह’ व ”हूल दिवस” के रूप में याद किया जाता है। जबकि 9 जून को पूरा झारखंड बिरसा मुंडा की शहादत को याद करता है। क्योंकि अंग्रेजों ने ‘उलगुलान’ के नायक बिरसा मुंडा को धीमा जहर देकर जेल में ही मार दिया था। तब उनकी उम्र केवल 25 वर्ष की थी। वहीं 30 जून 1855 को सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में अंग्रेजों और महाजनों के खिलाफ हूल (विद्रोह) हुआ था, जिसमें करीब 20 हजार लोग मारे गए थे।

वहीं ‘चुहाड़ विद्रोह’ के नायक रघुनाथ महतो का जन्म 21मार्च, 1738 को तत्कालीन बंगाल के छोटानागपुर के जंगलमहल (मानभूम) जिला अंतर्गत नीमडीह प्रखंड के एक छोटे से गांव घुंटियाडीह में हुआ था।

बता दें कि 1769 में रघुनाथ महतो के नेतृत्व में आदिवासियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जंगल, जमीन के बचाव एवं नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए विद्रोह किया, जिसे चुहाड़ विद्रोह कहा गया। यह विद्रोह छोटानागपुर के जंगलमहल (मानभूम) के क्षेत्र में 1769 से 1805 तक चला।

यह बताना लजिमी होगा कि वर्तमान सरायकेला खरसावां जिले का चांडिल इलाके के अंतर्गत नीमडीह प्रखंड में स्थित रघुनाथ महतो का गाव घुंटियाडीह आज भी है, लेकिन रघुनाथ महतो के वंशज का कोई पता नहीं है। शायद रघुनाथ महतो पर जितना काम होना चाहिए था, नहीं हो पाया है।

जबकि 1750 में जन्मे तिलका मांझी ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध 1771 से 1784 तक लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासक की नींद उड़ाए रखा।


बताते चलें कि दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है, और भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में विद्रोही होने का श्रेय तिलका मांझी को जाता है, जिसने तत्कालीन राजमहल क्षेत्र के जंगल व पहाड़ों पर ब्रितानी हुकूमत से लोहा लिया। सबसे दुखद यह है कि तिलका मांझी के वंशज का भी आज कोई अता-पता नहीं है। जबकि तिलका मांझी के नाम पर बिहार के भागलपुर में ‘तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय भागलपुर’ है। जबकि सिद्धू-कान्हू और बिरसा मुंडा के वंशज की जानकारी है।

वहीं ‘हो विद्रोह’ के नायक पोटो हो और ‘कोल विद्रोह’ के बुधु भगत के वंशज का भी पता नहीं है। बुधु भगत के वंशज का पता इसलिए नहीं है क्योंकि इनके परिवार के 100 लोगों की हत्या अंग्रेजी हुकूमत ने कर दी थी।

उल्लेखनीय है कि 30 जून, 1855 को संताल आदिवासियों ने सिद्धू, कान्हू, चांद, भैरव और उनकी बहन फूलो, झानो के नेतृत्व में साहेबगंज जिले के भोगनाडीह में 400 गांव के 40,000 आदिवासियों ने अंग्रेजों को मालगुजारी देने से साफ इंकार कर दिया था। इस दौरान सिद्धू ने कहा था- अब समय आ गया है फिरंगियों को खदेड़ने का। इसके लिए “करो या मरो, अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो” का नारा दिया गया था। अंग्रेजों ने तुरंत इन चार भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश जारी किया। गिरफ्तार करने आये दारोगा की संताल आंदोलनकारियों ने गर्दन काटकर हत्या कर दी। इसके बाद संताल परगना के सरकारी अधिकारियों में आतंक छा गया।

बताया जाता है जब कभी भी आदिवासी समाज की परंपरा, संस्कृति और उनके जल, जंगल, जमीन को विघटित करने का प्रयास किया गया है, प्रतिरोध की चिंगारी भड़क उठी। 30 जून, 1855 का संताल विद्रोह इसी कड़ी का एक हिस्सा है। महाजनों, जमींदारों और अंग्रेजी शासन द्वारा जब आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करने का प्रयास किया गया तब उनके खिलाफ आदिवासियों का गुस्सा इतना परवान चढ़ा कि इस लड़ाई में सिद्धू, कान्हू, चांद, भैरव और उनकी बहन फूलो, झानो सहित लगभग 20 हज़ार संतालों ने जल, जंगल, जमीन की हिफाजत के लिए अपनी कुर्बानी दे दी। इसके पूर्व गोड्डा सब-डिवीजन के सुंदर पहाड़ी प्रखंड की बारीखटंगा गांव का बाजला नामक संताल युवक की विद्रोह के आरोप में अंग्रेजी शासन द्वारा हत्या कर दी गई थी। अंग्रेज इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर ने अपनी किताब ‘द एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’ में लिखा है कि अंग्रेज का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था जो आदिवासियों के इस बलिदान को लेकर शर्मिंदा न हुआ हो।

कहा जाता है कि अपने ही कुछ विश्वस्त साथियों ने विश्वासघात किया और सिद्धू और कान्हू को पकड़वाया। तब अंग्रेजी हुकूमत ने सिद्धू और कान्हू को भोगनाडीह गांव में सबके सामने एक पेड़ पर टांगकर फांसी दे दी।

भले ही ”हूल दिवस” (संताल दिवस) को सरकारी या कुछ सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों द्वारा एक औपचारिकता के तौर पर याद किया हो, लेकिन झारखंड के आम आदिवासी के बीच यह हूल दिवस औपचारिकता से आज भी दूर है।

संकलन: सुशिल म. कुवर

तसवीर : प्रतिकात्मक है शेअर कर सकते है

गुरुवार, १४ एप्रिल, २०२२

निमाड़ क्षेत्र के आदिवासी वीर खाज्या नायक

क्राँतिकारी - खाज्या नायक निमाड़ क्षेत्र के सांगली ग्राम निवासी गुमान नायक के पुत्र थे जो सन् 1833 में पिता गुमान नायक की मृत्यु के बाद सेंधवा घाट के नायक बने थे। उस इलाके में कैप्टन मॉरिस ने विद्रोही भीलों के विरूद्ध एक अभियान छेड़ा था। जिसमें खाज्या नायक ने सहयोग दिया था। जिसमें खाज्या नायक को ईनाम दिया गया था। बाद में खाज्या को निलंबित कर दिया था। यहीं से खाज्या का जीवन पलटा और उसने दो सौ आदिवासी लोगों का एक दल बना लिया था। एक हत्या के जुर्म में 1850 में ब्रिटिश सरकार ने उसे बंदी बना लिया और 10 साल की सजा दी गई। किन्तु 1856 में उसे छोड़ दिया गया और फिर वार्डन के लिए नौकरी दी गई किन्तु खाज्या ने नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पड़ा।

क्रांतिवीर खाज्या नायक की अहम भूमिका :

खाज्या नायक आदिवासी चेतना का पहला प्रखर योद्धा थे जिन्होंने अंग्रेजों से सीधे युद्ध किया था। सन् 1807 की क्राँति में जिसने बड़वानी क्षेत्र के भीलों की बागडोर संभाली। सन् 1857 के महासंग्राम के कुछ समय पूर्व से ही खाज्या नायक क्राँति महानायक तात्या टोपे के सम्पर्क में थे। ग्वालियर व पुनासा के क्रांतिकारियों के  द्वारा निमाड़ में होने वाले पत्रों के आदान-प्रदान में खाज्या नायक की प्रमुख भूमिका थी। खाज्या के संगठन में भीलों के अलावा मकरानी और अरब योद्धा भी शामिल थे। इस दल में 800 सौ लोग थे जिनमें 150 बंदूकची, 80 मकरानी और अरब भी थे।

 महत्वपूर्ण बिन्दू-खाज्या का भीलों पर बहुत ज्यादा प्रभाव था भीलों को भी खाज्या पर पूरा भरोसा था। 1 जून 1858 को लै0 एटकिन्स और लै0 पोरबीन ने नेवली के दक्षिण-पश्चिम में खाज्या के दल पर आक्रमण कर दिया जिसमें खाज्या की हार हो गई बावजूद इसके सिरपुर से पाँच मील दूर तक सभी भील खाज्या के दल में शामिल हो गये थे। दो-तीन अन्य गांवों बोलरक, करेरा, रूपखेड़ा के लगभग सौ भील भी खाज्या दल में आ गए थे।

क्रांतिवीर खाज्या नायक की संघर्ष और मृत्यु गाथा

खाज्या नायक एक आदिवासी आस्था से लबरेज व्यक्ति थे। वह धार्मिक थे एक दिन खाज्या पूजा करने के लिए नदी में सूर्य को नमस्कार कर रहा था तब अंग्रेजों के भेजे रोहिद्दीन ने खाज्या की पीठ पर गोली चला दी खाज्या गिर पड़ा। मरते समय खाज्या ने कहा मेरे बेटे की फिकर करना, यह देख खाज्या की बहन आयी, जिसे मार दिया गया। रोहिद्दीन ने खाज्या के 14 साल के पूत्र को पकड़ लिया। 3-4 अक्टूबर 1860 खाज्या का सिर काटकर मिसरी खाँ और शेखनन्नू के साथ सिरपुर लाए जहाँ तत्कालीन कलेक्टर एवं अन्य अधिकारी मौजूद थे।संघर्ष और मृत्यु

सन् 1860 की शुरूआत में खाज्या नायक पर जब ज्यादा दबाव पड़ा तो वह बड़वानी चला गए और वहाँ भी विद्रोह का वातावरण बनने लगा। बर्च, होसिलबुड तथा एटकिन्स को खाज्या नायक को पकड़ने के लिए भेजा गया। खाज्या नायक ने अपने दल के दो हिस्से किये एक को अम्बापावनी और दूसरे को ढाबाबावली में रखा। 1 जुलाई को दोनों पक्षों का सामना हुआ। विद्रोही भागने लगे और एक बीहड़ में जाकर छुप गये। अँधेरा होने और बारिश होने के कारण ब्रिटिश टुकड़ी ने पीछा करना बंद किया और अगले दिन भूरागढ़ रवाना हो गयी और वहाँ से 25 मीन दूर पलसनेर लौट आयी। इसके बाद हिसलवुड और स्काट की मुठभेड़ खाज्या नायक के दल से हुई। विद्रोहियों के बारूद के ढेर को तोप के गोले से उड़ दिया गया और विद्रोहियों के करीब 1500 लोग मारे गये और 150 लोग पकड़े गये जिन्हें पेड़ पर बाँधकर गोली से उड़ा दिया गया। सेना के हाथ बहुत सा सामान लगा जिसमें चांदी की 70 सिल्लियाँ भी थीं। खाज्या के सभी साथी भाग गये या बंदी बना लिये गये।
 
इसके बाद लै0 एटकिन्स की कमाने में एक टुकड़ी खाज्या नायक के विरूद्ध भेजी गयी। खाज्या के साथ भील, मकरानी और अरब लड़के भी थे। गोलीबारी में एटकिन्स गंभीर रूप से घायल हो गया और अब जमादार मोतीलाल कमाण्ड करने लगा। इसके बावजूद खाज्या नायक पकड़ा नहीं जा सका। इस पराजय के बाद सभी मकरानियों ने खाज्या का साथ छोड़ दिया और उसके साथ भील ही रह गये। उसे साथियों की तलाश थी। पुलिस अधिकारी को जब इसके बारे में पता चला तो उसने सादा वेश में रोहिद्दीन नाम के एक मकरानी जमादार को खाज्या के पास नौकरी की तलाश में भेजा। रोहिद्दीन वहाँ गया जहाँ खाज्या अपना पड़ाव डाले हुए था। उसे खाज्या के आदमियों ने पकड़कर खाज्या के पास पेश किया। खाज्या ने उसे कुरान की शपथ दिलाई कि वह कभी विश्वासघात नहीं करेगा। भीमा नायक भी इन दिनों खाज्या के पास थे। भीमा ने खाज्या को चेतावनी दी कि यह मकरानी बड़ा शातिर है और वह धोखा देगा, उस पर विश्वास मत करो। इस पर रोहिद्दीन ने कसमें खाई और खाज्या ने उसे अपने पास रख लिया। भीमा नायक जब तक खाज्या के पास थे तब तक रोहिद्दीन खाज्या को पूरी तरह विश्वास में नहीं ले सका। कुछ दिन बाद भीमा चले गए तब रोहिद्दीन को मौका मिला।  एक दिन जब खाज्या स्नान करके सूर्य की ओर मुँह करके खड़ा था तभी रोहिद्दीन ने गोली चला दी और खाज्या गिर पड़ा। मरते समय खाज्या ने कहा 'मेरे बेटे पोलादसिंह की फिकर रखना' यह देख कर खाज्या की बहिन आयी तो रोहिददीन ने उसे भी मार डाला। यह घटना 10-11 अप्रेल 1860 की है। रोहिद्दीन ने खाज्या के 14 साल के बेटे को पकड़ लिया और खाज्या का सिर काटकर मिसरी खाँ तथा शेख नन्नू के साथ सिरपुर ले आय। उस समय कलेक्टर तथा कुल और भी अधिकारी मौजूद थे। खाज्या नायक के शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया।

रविवार, ३० जानेवारी, २०२२

तिलका मांझी वो शूरवीर स्वतंत्रता सेनानी जिसे हमारी इतिहास की किताबों में जगह नहीं दी गई

1857, मंगल पांडे की बैरकपुर में उठी हुंकार के साथ ही देशभर में क्रांति की आग फैल गई। 1857 को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पहला विद्रोह कहा जाता है। इतिहास की कई किताबों में ये फ़र्स्ट रिवॉल्ट ऑफ़ इन्डिपेंडेंस के नाम से दर्ज है। ग़ौरतलब है कि इससे पहले भी देश के अलग-अलग हिस्सों में क्रांति की ज्वालायें भड़की थी और कई आज़ादी के मतवालों ने विद्रोह का बिगुल बजाया था। दुख की बात है कि इनके बारे में हमें बहुत कम जानकारी है।
ऐसे ही एक वीर सपूत थे, तिलका मांझी।

कौन थे तिलका मांझी?

तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज में ‘तिलकपुर’ नामक गाँव में एक संथाल परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सुंदरा मुर्मू था। वैसे उनका वास्तविक नाम ‘जबरा पहाड़िया’ ही था। तिलका मांझी नाम तो उन्हें ब्रिटिश सरकार ने दिया था। पहाड़िया भाषा में ‘तिलका’ का अर्थ है गुस्सैल और लाल-लाल आंखों वाला व्यक्ति। साथ ही वे ग्राम प्रधान थे और पहाड़िया समुदाय में ग्राम प्रधान को मांझी कहकर पुकारने की प्रथा है। तिलका नाम उन्हें अंग्रेज़ों ने दिया। अंग्रेज़ों ने जबरा पहाड़िया को खूंखार डाकू और गुस्सैल (तिलका) मांझी (समुदाय प्रमुख) कहा। ब्रिटिशकालीन दस्तावेज़ों में भी ‘जबरा पहाड़िया’ का नाम मौजूद हैं पर ‘तिलका’ का कहीं उल्लेख नहीं है। वे संथाल थे या पहाड़िया, इतिहासकारों में इस बात पर मतभेद है। उस दौर के ब्रिटिश रिकॉर्ड्स पलटने पर उनका नाम 'जबरा पहाड़िया' ही मिलता है।

कई इतिहासकार तिलका मांझी को प्रथम स्वतंत्रता सेनानी मानते हैं। तिलका मांझी के जीवन पर महाश्वेता देवी ने बांग्ला भाषा में 'शालगिरार डाके' और राकेश कुमार सिंह ने हिंदी में 'हुल पहाड़िया' लिखा है।

जंगल और प्रकृति के प्रति ममता

तिलका मांझी ने बचपन से ही अपनी मां यानि प्रकृति को अंग्रेज़ों द्वारा कुचले जाते देखा था। अंग्रेज़ों द्वारा उसके लोगों पर किये जाने वाले अत्याचार देख कर ही वो बड़ा हुआ। पहले से ही दिल के किसी कोने में छिपी स्वतंत्रता की आग को ग़रीबों की ज़मीन, खेत, खेती आदि पर अंग्रेज़ों के अवैध कब्ज़े ने हवा दी।

 बंगाल की ज़मीनदारी प्रथा

1707 में औरंगजे़ब की मौत के बाद बंगाल मुग़लों के हाथ से छूटकर एक सूबा या प्रोविंस बन गया। यहां ज़मीन की क़ीमत वसूल करने के लिये जागीरदार और ज़मीनदार बैठा दिये गये। ये ज़मीनदार ग़रीबों, आदिवासियों का शोषण करते। अंग्रेज़ों ने ज़मीनदारी प्रथा ख़त्म तो की लेकिन उनकी गद्दी पर गोरे साहब बैठ गये। अंग्रेज़ों ने भी आदिवासियों का शोषण किया।

आदिवासियों के पास विद्रोह के अलावा कोई चारा नहीं बचा।

अंग्रेज़ों ने हथिया लिया 'जंगल महल' क्षेत्र

1750 में अंग्रेज़ों ने नवाब सिराजउद्दौला से जंगल महल क्षेत्र हथिया लिया. 1765 तक कंपनी ने संथाल परगना, छोटानागपुर पर भी कब्ज़ा कर लिया. अंग्रेज़ बिहार और बंगाल के आदिवासियों से भारी कर वसूलने लगी और आदिवासियों के पास महाजनों से सहायता मांगने पर मजबूर हो गये।

अंग्रेज़ और महाजन आपस में मिले होते और महाजन धोखे से उधार चुकाने में असमर्थ आदिवासियों की ज़मीन हड़प लेते।

तिलका मांझी का बचपन, युवावस्था ये सब देखते हुये बीता.

लोगों को इकट्ठा कर प्रेरित करना शुरू किया

1770 आते-आते तिलका मांझी ने अंग्रेज़ों से लोहा लेने की पूरी तैयारी कर ली थी. वो लोगों को अंग्रेज़ों के आगे सिर न झुकाने के लिये प्रेरित करते. उनके भाषण में जात-पात की बेड़ियों से निकल कर, अंग्रेज़ों से अपना हक़ छीनने जैसी बातें होती।

बंगाल में पड़ा भीषण सूखा

1770 में ही बंगाल में भीषण सूखा पड़ा. संथाल परगना पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ा. आदिवासियों को लगा कि टैक्स कम किया जायेगा लेकिन कंपनी सरकार ने टैक्स दोगुना कर दिया और जबरन वसूली भी शुरु कर दी। कंपनी अपना खज़ाना भर्ती रही और लोगों की मदद नहीं की। लाखों लोग भूख की भेंट चढ़ गये।

तिलका मांझी ने लूटा अंग्रेज़ों का खज़ाना

अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लोगों की नफ़रत बढ़ रही थी। तिलका मांझी ने भागलपुर (बिहार) में रखा ख़ज़ाना लूट लिया. टैक्स और सूखे की मार झेल रहे ग़रीबों और आदिवासियों में मांझी ने लूटे हुये पैसे बांट दिए। लोगों में वो रॉबिन हूड जैसे ही मशहूर हो गये।

बंगाल के तत्कालनी गवर्नर, वारेन हेस्टिंग्स ने तिलका मांझी को पकड़ने के लिये 800 की फौज भेजी।

पंजाब रेजिमेंट पर हमला

28 वर्षीय तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासियों ने 1778 में रामगढ़ कैंटोनमेंट (अभी झारखंड में) में तैनात पंजाब रेजिमेंट पर हमला कर दिया। आदिवासियों की सेना इतने जोश के सामने कंपनी सरकार की बंदूकें नहीं चल पाईं। अंग्रेज़ों को कैन्टोनमेंट छोड़ कर भागना पड़ा।

धूर्त अंग्रेज़ क्लेव्हलँड को किया गया तैनात

अंग्रेज़ों को अपनी बेइज़्ज़ती का बदला लेना था. तिलका मांझी और अन्य आदिवासियों से निपटने ने के लिये कंपनी सरकार ने ऑगस्टस क्लेव्हलँड को मुंगेर, भागलपुर और राजमहल ज़िलो का कलेक्टर ऑफ़ रेवेन्यू बनाकर भेजा। क्लेव्हलँड ने संथालियों से बात-चीत करने के लिये संथाली सीखी। कहते हैं 40 आदिवासी समुदायों ने क्लेव्हलँड की सत्ता स्वीकार की। क्लीवलैंड आदिवासियों को टैक्स में छूट, नैकरी जैसे लुभावने प्रस्ताव देता। क्लेव्हलँड ने आदिवासियों की एकता तोड़ने के लिये उन्हें बतौर सिपाही रखना भी शुरु कर दिया।

तिलका मांझी को भी नौकरी का प्रस्ताव दिया गया। तिलका अंग्रेज़ों की असली चाल समझ गये और उन्होंने कोई भी प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। कुछ आदिवासी अब भी तिलका का समर्थन कर रहे थे और आदिवासी एकता बनाये रखने के लिये दिन-रात एक कर रहे थे।

साल के पत्तों पर भेजे संदेश

तिलका ने अन्य आदिवासी समुदायों को एकजुट करने की कोशिश की। उन्होंने साल के पत्ते पर संदेश लिखकर अन्य समुदायों को प्रमुख को भेजा। मिट्टी की पुकार को अनसुना करना मुश्किल है। अपनी माटी की रक्षा के लिये कई लोग आगे आये और तिलका मांझी को बहुत से प्रमुखों का समर्थन मिला।

1784 अंग्रेज़ों के भागलपुर मुख्यालय पर किया हमला

तिलका मांझी ने एक बहुत बड़ा क़दम उठाने की प्लानिंग की। 1784 में आदिवासियों ने अंग्रेज़ों के भागलपुर मुख्यालय पर हमला कर दिया। घमासान लड़ाई हुई।

ज़हरीली तीर से क्लेव्हलँड को मारा

तिलका मांझी ने अपने धुनष से एक ज़हरीली तीर छोड़ी और वो क्लेव्हलँड को लगी। वो ज़ख़्मी हो गया और कुछ दिनों बाद मारा गया।

एक आदिवासी के हाथों क्लेव्हलँड की मौत अंग्रेज़ों के गाल पर ज़ोरदार तमाचा जैसा था। कंपनी सरकार ने लेफ्टिनेंट जनरल आयर कूटे को तिलका को ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ने के लिये भेजा।

किसी ने दे दी थी आदिवासी नेता की ख़बर

कहा जाता है कि किसी घर के भेदी ने तिलका मांझी का पता अंग्रेज़ों को बता दिया। अंग्रेज़ों ने बीच रात में तिलका और अन्य आदिवासियों पर हमला किया। तिलका जैसे-तैसे बच गये लेकिन उनके कई कॉमरेड शहीद हो गये।

13 जनवरी 1785 को 35 वर्षीय वीर तिलका मांझी को दे दी फांसी

अंग्रेज़ों से बच कर तिलका मांझी अपने गृह ज़िले, सुलतानगंज के जंगलों में जा छिपे। यहां से उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ गुरैल्ला युद्ध छेड़ दिया। अंग्रेज़ तिलका तक पहुंचने वाले हर सप्लाई रूट को बंद करने में क़ामयाब हो गये। तिलका और उनके सैनिकों को अंग्रेज़ों से आमने-सामने लड़ना पड़ा।

कहते हैं 12 जनवरी, 1785 के दिन तिलका मांझी को अंग्रेज़ों ने पकड़ लिया।

तिलका मांझी को अंग्रेज़ों ने घोड़ों से बांधकर भागलपुर तक घसीटा। कहते हैं तिलका मांझी इस यातना के बाद जीवित थे। 13 जनवरी, 1785 को 35 वर्षीय वीर को फांसी दे दी गई।

इतिहास के किताबों में ग़ुम है तिलका मांझी

तिलका मांझी इतिहास की किताबों से भले ही ग़ुम हैं लेकिन आदिवासी समाज में आज भी क़ायम हैं। आदिवासी समुदाय में उन पर कहानियां कही जाती हैं, संथाल उन पर गीत गाते हैं। 1831 का सिंगभूम विद्रोह, 1855 का संथाल विद्रोह सब तिलका की जलाई मशाल का ही असर है।

आज भी अनेक गीतों तथा कविताओं में तिलका मांझी को विभिन्न रूपों में याद किया जाता है-

तुम पर कोडों की बरसात हुई

तुम घोड़ों में बांधकर घसीटे गए

फिर भी तुम्हें मारा नहीं जा सका

तुम भागलपुर में सरेआम

फांसी पर लटका दिए गए

फिर भी डरते रहे ज़मींदार और अंग्रेज़

तुम्हारी तिलका (गुस्सैल) आंखों से

मर कर भी तुम मारे नहीं जा सके

तिलका मांझी

मंगल पांडेय नहीं,

तुम आधुनिक भारत के पहले विद्रोही थे

1991 में बिहार सरकार ने भागलपुर यूनिवर्सिटी का नाम बदलकर तिलका मांझी यूनिवर्सिटी रखा और उन्हें सम्मान दिया। इसके साथ ही जहां उन्हें फांसी हुई थी उस स्थान पर एक स्मारक बनाया गया। 

भारत माँ के इस सपूत को सादर नमन एवं सेवा जोहार! 💐💐


1857 का वो योद्धा जिसकी बहादुरी को देख अंग्रेज़ों ने उन्हें 'इंडियन रॉबिन हुड' नाम दिया था

भारतीय इतिहास में एक से बढ़कर एक योद्धा हुए हैं। देश की ख़ातिर इन क्रांतिकारियों ने अपने प्राण तक न्योछावर कर दिये। 1857 की क्रांति से पहले से लेकर देश आज़ादी तक, कई क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपने अपने तरीके से जंग लड़ी थी। अंग्रेज़ों से जंग लड़ने वाले एक क्रांतिकारी 'टंट्या भील' भी थे।

कौन थे टंट्या भील?

टंट्या भील का जन्म 26 जनवरी 1842 में तत्कालीन मध्य प्रांत के पूर्वी निमाड़ (खंडवा) की पंधाना तहसील के बडौदा गाँव में हुआ था, जो वर्तमान में भारतीय राज्य मध्य प्रदेश में स्थित है। टंट्या भील का असली नाम 'टण्ड्रा भील' था। वो एक ऐसे योद्धा थे जिसकी वीरता को देखते हुए अंग्रेज़ों ने उन्हें 'इंडियन रॉबिन हुड' नाम दिया था। देश की आजादी के जननायक और आदिवासियों के हीरो टंट्या भील की वीरता और अदम्य साहस से प्रभावित होकर तात्या टोपे ने उन्हें 'गुरिल्ला युद्ध' में पारंगत बनाया था।

वो 'भील जनजाति' के एक ऐसे योद्धा थे, जो अंग्रेज़ों को लूटकर ग़रीबों की भूख मिटाने का काम करते थे। टंट्या ने ग़रीबों पर अंग्रेज़ों की शोषण नीति के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी, जिसके चलते वो ग़रीब आदिवासियों के लिए मसीहा बनकर उभरे। आज भी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई आदिवासी घरों में टंट्या भील की पूजा की जाती है।

टंट्या भील केवल वीरता के लिए ही नहीं, बल्कि सामाजिक कार्यों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने के लिए भी जाने जाते थे। उन्होंने ग़रीबी-अमीरी का भेद हटाने के लिए हर स्तर पर कई प्रयास किए थे। इसलिए वो आदिवासी समुदाय के बीच 'मामा' के रूप में भी जाने जाने लगे। आज भील जनजाति के लोग उन्हें 'टंट्या मामा' कहलाने पर गौरव महसूस करते हैं।

विद्रोही तेवर से मिली थी टंट्या को पहचान

टंट्या भील को उनके विद्रोही तेवर के चलते कम समय में ही बड़ी पहचान मिल गयी थी. टंट्या का स्वभाव उनके नाम की तरह ही था, जिसका का शब्दार्थ अर्थ 'झगड़ा' होता है। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह करने के बावजूद 'टंट्या मामा' के कारनामों के चलते अंग्रेज़ों ने ही उन्हें 'इंडियन रॉबिन हुड' नाम दिया था।

'गुरिल्ला युद्ध' नीति में माहिर थे टंट्या भील

आदिवासियों के विद्रोहों की शुरूआत प्लासी युद्ध (1757 ) के ठीक बाद ही शुरू हो गई थी और ये संघर्ष 20वीं सदी की शुरूआत तक चलता रहा। सन 1857 से लेकर 1889 तक टंट्या भील ने अंग्रेज़ों के नाक में दम कर रखा था। वो अपनी 'गुरिल्ला युद्ध नीति' के तहत अंग्रेज़ों पर हमला करके किसी परिंदे की तरह ओझल हो जाते थे।

टंट्या भील को प्राप्त थीं आलौकिक शक्तियां

टंट्या भील के बारे में कहा जाता है कि उन्हें आलौकिक शक्तियां प्राप्त थीं। इन्हीं शक्तियों के सहारे टंट्या एक ही समय में 1700 गांवों में सभाएं करते थे। टंट्या की इन शक्तियों के कारण अंग्रेज़ों के 2000 सैनिक भी उन्हें पकड़ नहीं पाते थे। टंट्या देखते ही देखते अंग्रेज़ों के आंखों के सामने से ओझल हो जाते थे। इसके अलावा उन्हें सभी तरह के जानवरों की भाषाएं भी आती थीं।

टंट्या भील की मृत्यु कैसे हुई

टंट्या भील को उसकी औपचारिक बहन के पति गणपत के विश्वासघात के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें इंदौर में ब्रिटिश रेजीडेंसी क्षेत्र में सेंट्रल इंडिया एजेंसी जेल में रखा गया था। बाद में उन्हे सख्त पुलिस सुरक्षा में जबलपुर ले जाया गया। उन्हें भारी जंजीरों से जकड़ कर जबलपुर जेल में रखा गया जहां ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें अमानवीय रूप से प्रताड़ित किया। उस पर तरह-तरह के अत्याचार किए गए। सत्र न्यायालय, जबलपुर ने उन्हें 19 अक्टूबर 1889 को फांसी की सजा सुनाई। उन्हे फिर 4 दिसम्बर 1889 को फासी दी गई, इस तरह टंट्या भील की मृत्यु हुई।

अंग्रेज़ों ने 'टंट्या मामा' के शव को इंदौर के निकट खंडवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी (कालापानी) रेलवे स्टेशन के पास ले जाकर फेंक दिया गया। जिस स्थान पर उनके लकड़ी के पुतले रखे गए थे, वह स्थान टंट्या मामा की समाधि मानी जाती है। आज भी सभी ट्रेन चालक टंट्या मामा के सम्मान में ट्रेन को एक पल के लिए रोक देते हैं। निमाड़ अंचल की गीत-गाथाओं में आज भी टंटया मामा को याद किया जाता है।

जननायक टंट्या भील के नाम से दिया जाता है राज्य स्तरीय सम्मान
 
मध्य प्रदेश शासन द्वारा शिक्षा और खेल गतिविधियों में उल्लेखनीय साधना तथा उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए आदिवासी युवा को दिया जाता है। इस सम्मान के अंतर्गत एक लाख रुपये की सम्मान निधि एवं प्रशस्ति पट्टिका प्रदान की जाती है। यह सम्मान किसी एक उपलब्धि के लिए न होकर शिक्षा और खेल गतिविधियों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए, सुदीर्घ साधना एवं उपलब्धि के लिए दिया जाता है।

वर्ष 2008 में यह सम्मान श्री राजाराम मौर्य, देवास को प्रदान किया गया था।

टंट्या मामा के सम्मान में  मध्य प्रदेश सरकार के जनसंपर्क विभाग द्वारा 26 जनवरी 2009  को  नई दिल्ली में " भारतीय रॉबिन हुड " नाम की झांकी का राजपथ पर प्रदर्शित कि गयी थी जिसे बहुत सराहा गया था।

टंट्या मामा भील आधारित बनी थी दो फ़िल्म
 
जननायक टंट्या मामा पर 1988 में "दो वक्त की रोटी" और 2012 में "तंट्या भील" नाम की फिल्म बनी जिसे पांच भाषा में प्रसारित किया गया। टंट्या मामा पर अधिक  जानकारी के लिए आदिवासी एकता परिषद द्वारा प्रकाशित “शेरे निमाड टंट्या भील” और  कुंज पब्लिकेशन द्वारा “द भील किल्स” का अध्ययन किया जा सकता है।

टंट्या मामा सच्चे देश प्रेमी, महान योद्धा, समर्पित देश भक्त और महान क्रांतिकारी थे जिंहोने भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को अमर बना दिया और पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की आग को हवा दिया। आज ऐसे महान योद्धा को उनके जयंती दिवस पर शत् शत् नमन और कोटि कोटि सेवा जोहार !

संकलन : सुशिल म. कुुवर

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गुरुवार, १३ जानेवारी, २०२२

बांसवाड़ा के संस्थापक राजा बांसिया भील

बांसवाड़ा के संस्थापक राजा बांसिया भील
भील राजा बिया (बापड़ा) चरपोटा ने चित्तौड़गढ़ और मल्हारगढ़, धारगढ़ राजधानियों पर राज किया. उनके 2 पुत्र अमरा, वागा जड़ चरपोटा थे. भील राजा बिया चरपोटा के बाद राज्य का शासक भील राजा अमरा के नाम से अमरथुन नगर का नामकरण किया गया. वागा के नाम से वाड़गुन नगर और जड़ ने संन्यास लेकर साधुओं के साथ पहाड़ पर चले गए और साधु बन गए. जिनके नाम से उस पहाड़ का नामकरण जगमेरु (जोगिमाल) रखा गया, जो कि घाटोल उपखण्ड में है.राजा अमरा ने अमरथुन को अपनी राजधानी बनाया. यहां से पूरे क्षेत्र में राज किया करते थे. भील राजा बिया चरपोटा चित्तौड़गढ़ से चरपोटा वंश की कुलदेवी मां अंबे और शिव पार्वती की मूर्तियां भील राजा अमरा चरपोटा अमरथुन में सन 1445 ईसवी में लेकर आए थे, जो आज भी स्थापित है. राजा अमरा चरपोटा के 2 पुत्र 3 पुत्रियां थी. एक पुत्र बासिया, दूसरा बदीया और पुत्री 1 बाई, डाई, 3 राजा था. राजा अमरा चरपोटा के बाद राज्य के शासक भील राजा बासिया चरपोटा बने.

राजा बासिया व उसके भाई बहन ने अमरचंद नगर से निकलकर एक घने जंगल को काटकर नगर बसाया. जिसका नाम भील राजा बासिया के नाम से बांसवाड़ा किया गया. बांसवाड़ा नगर की स्थापना सन 14 जनवरी 1515 ईसवी को मकर संक्रांति के दिन भील राजा बासिया चरपोटा ने की थी. इस दिन खुशी से तिल-पपड़ी का प्रसाद बनाकर पूरे नगर में बांटी गई, जो परंपरा आज भी चल रही है.आज भी बांसवाड़ा जिले में मकर संक्रांति पर तिल पपड़ी का प्रसाद बनाकर लोग एक दूसरे को बांटते हैं. भील राजा बांसिया चरपोटा की दो पत्नियां थी. जिसमें एक का नाम संवाई और हंगवाई था. जिनके नाम से राजा ने संवाईपूरा नगर व हंगवाई के नाम से अमरथुन में हंनगर पहाड़ व उनकी तीन बहनों के नाम से बांसवाड़ा में बाइक के नाम से बाइतालाब, डाई के नाम से डायलाब, राजा के राजातालाब का नामकरण किया, जो आज भी इसी नाम से जाने जाते हैं. राजा बांसिया ने बांसवाड़ा में समाई पूरा और अमरथुन में हुरनगर पहाड़ पर किले का निर्माण कराया था. जिसके अवशेष आज भी मौजूद है. श्री राजा बांसिया का पैतृक गांव अमरथुन था. जिनके वंशज बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ (राज.), रतलाम (म.प्र.) गुजरात क्षेत्रों मे निवास करते हैं।