1857, मंगल पांडे की बैरकपुर में उठी हुंकार के साथ ही देशभर में क्रांति की आग फैल गई। 1857 को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पहला विद्रोह कहा जाता है। इतिहास की कई किताबों में ये फ़र्स्ट रिवॉल्ट ऑफ़ इन्डिपेंडेंस के नाम से दर्ज है। ग़ौरतलब है कि इससे पहले भी देश के अलग-अलग हिस्सों में क्रांति की ज्वालायें भड़की थी और कई आज़ादी के मतवालों ने विद्रोह का बिगुल बजाया था। दुख की बात है कि इनके बारे में हमें बहुत कम जानकारी है।
ऐसे ही एक वीर सपूत थे, तिलका मांझी।
कौन थे तिलका मांझी?
तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज में ‘तिलकपुर’ नामक गाँव में एक संथाल परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सुंदरा मुर्मू था। वैसे उनका वास्तविक नाम ‘जबरा पहाड़िया’ ही था। तिलका मांझी नाम तो उन्हें ब्रिटिश सरकार ने दिया था। पहाड़िया भाषा में ‘तिलका’ का अर्थ है गुस्सैल और लाल-लाल आंखों वाला व्यक्ति। साथ ही वे ग्राम प्रधान थे और पहाड़िया समुदाय में ग्राम प्रधान को मांझी कहकर पुकारने की प्रथा है। तिलका नाम उन्हें अंग्रेज़ों ने दिया। अंग्रेज़ों ने जबरा पहाड़िया को खूंखार डाकू और गुस्सैल (तिलका) मांझी (समुदाय प्रमुख) कहा। ब्रिटिशकालीन दस्तावेज़ों में भी ‘जबरा पहाड़िया’ का नाम मौजूद हैं पर ‘तिलका’ का कहीं उल्लेख नहीं है। वे संथाल थे या पहाड़िया, इतिहासकारों में इस बात पर मतभेद है। उस दौर के ब्रिटिश रिकॉर्ड्स पलटने पर उनका नाम 'जबरा पहाड़िया' ही मिलता है।
कई इतिहासकार तिलका मांझी को प्रथम स्वतंत्रता सेनानी मानते हैं। तिलका मांझी के जीवन पर महाश्वेता देवी ने बांग्ला भाषा में 'शालगिरार डाके' और राकेश कुमार सिंह ने हिंदी में 'हुल पहाड़िया' लिखा है।
जंगल और प्रकृति के प्रति ममता
तिलका मांझी ने बचपन से ही अपनी मां यानि प्रकृति को अंग्रेज़ों द्वारा कुचले जाते देखा था। अंग्रेज़ों द्वारा उसके लोगों पर किये जाने वाले अत्याचार देख कर ही वो बड़ा हुआ। पहले से ही दिल के किसी कोने में छिपी स्वतंत्रता की आग को ग़रीबों की ज़मीन, खेत, खेती आदि पर अंग्रेज़ों के अवैध कब्ज़े ने हवा दी।
बंगाल की ज़मीनदारी प्रथा
1707 में औरंगजे़ब की मौत के बाद बंगाल मुग़लों के हाथ से छूटकर एक सूबा या प्रोविंस बन गया। यहां ज़मीन की क़ीमत वसूल करने के लिये जागीरदार और ज़मीनदार बैठा दिये गये। ये ज़मीनदार ग़रीबों, आदिवासियों का शोषण करते। अंग्रेज़ों ने ज़मीनदारी प्रथा ख़त्म तो की लेकिन उनकी गद्दी पर गोरे साहब बैठ गये। अंग्रेज़ों ने भी आदिवासियों का शोषण किया।
आदिवासियों के पास विद्रोह के अलावा कोई चारा नहीं बचा।
अंग्रेज़ों ने हथिया लिया 'जंगल महल' क्षेत्र
1750 में अंग्रेज़ों ने नवाब सिराजउद्दौला से जंगल महल क्षेत्र हथिया लिया. 1765 तक कंपनी ने संथाल परगना, छोटानागपुर पर भी कब्ज़ा कर लिया. अंग्रेज़ बिहार और बंगाल के आदिवासियों से भारी कर वसूलने लगी और आदिवासियों के पास महाजनों से सहायता मांगने पर मजबूर हो गये।
अंग्रेज़ और महाजन आपस में मिले होते और महाजन धोखे से उधार चुकाने में असमर्थ आदिवासियों की ज़मीन हड़प लेते।
तिलका मांझी का बचपन, युवावस्था ये सब देखते हुये बीता.
लोगों को इकट्ठा कर प्रेरित करना शुरू किया
1770 आते-आते तिलका मांझी ने अंग्रेज़ों से लोहा लेने की पूरी तैयारी कर ली थी. वो लोगों को अंग्रेज़ों के आगे सिर न झुकाने के लिये प्रेरित करते. उनके भाषण में जात-पात की बेड़ियों से निकल कर, अंग्रेज़ों से अपना हक़ छीनने जैसी बातें होती।
बंगाल में पड़ा भीषण सूखा
1770 में ही बंगाल में भीषण सूखा पड़ा. संथाल परगना पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ा. आदिवासियों को लगा कि टैक्स कम किया जायेगा लेकिन कंपनी सरकार ने टैक्स दोगुना कर दिया और जबरन वसूली भी शुरु कर दी। कंपनी अपना खज़ाना भर्ती रही और लोगों की मदद नहीं की। लाखों लोग भूख की भेंट चढ़ गये।
तिलका मांझी ने लूटा अंग्रेज़ों का खज़ाना
अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लोगों की नफ़रत बढ़ रही थी। तिलका मांझी ने भागलपुर (बिहार) में रखा ख़ज़ाना लूट लिया. टैक्स और सूखे की मार झेल रहे ग़रीबों और आदिवासियों में मांझी ने लूटे हुये पैसे बांट दिए। लोगों में वो रॉबिन हूड जैसे ही मशहूर हो गये।
बंगाल के तत्कालनी गवर्नर, वारेन हेस्टिंग्स ने तिलका मांझी को पकड़ने के लिये 800 की फौज भेजी।
पंजाब रेजिमेंट पर हमला
28 वर्षीय तिलका मांझी के नेतृत्व में आदिवासियों ने 1778 में रामगढ़ कैंटोनमेंट (अभी झारखंड में) में तैनात पंजाब रेजिमेंट पर हमला कर दिया। आदिवासियों की सेना इतने जोश के सामने कंपनी सरकार की बंदूकें नहीं चल पाईं। अंग्रेज़ों को कैन्टोनमेंट छोड़ कर भागना पड़ा।
धूर्त अंग्रेज़ क्लेव्हलँड को किया गया तैनात
अंग्रेज़ों को अपनी बेइज़्ज़ती का बदला लेना था. तिलका मांझी और अन्य आदिवासियों से निपटने ने के लिये कंपनी सरकार ने ऑगस्टस क्लेव्हलँड को मुंगेर, भागलपुर और राजमहल ज़िलो का कलेक्टर ऑफ़ रेवेन्यू बनाकर भेजा। क्लेव्हलँड ने संथालियों से बात-चीत करने के लिये संथाली सीखी। कहते हैं 40 आदिवासी समुदायों ने क्लेव्हलँड की सत्ता स्वीकार की। क्लीवलैंड आदिवासियों को टैक्स में छूट, नैकरी जैसे लुभावने प्रस्ताव देता। क्लेव्हलँड ने आदिवासियों की एकता तोड़ने के लिये उन्हें बतौर सिपाही रखना भी शुरु कर दिया।
तिलका मांझी को भी नौकरी का प्रस्ताव दिया गया। तिलका अंग्रेज़ों की असली चाल समझ गये और उन्होंने कोई भी प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। कुछ आदिवासी अब भी तिलका का समर्थन कर रहे थे और आदिवासी एकता बनाये रखने के लिये दिन-रात एक कर रहे थे।
साल के पत्तों पर भेजे संदेश
तिलका ने अन्य आदिवासी समुदायों को एकजुट करने की कोशिश की। उन्होंने साल के पत्ते पर संदेश लिखकर अन्य समुदायों को प्रमुख को भेजा। मिट्टी की पुकार को अनसुना करना मुश्किल है। अपनी माटी की रक्षा के लिये कई लोग आगे आये और तिलका मांझी को बहुत से प्रमुखों का समर्थन मिला।
1784 अंग्रेज़ों के भागलपुर मुख्यालय पर किया हमला
तिलका मांझी ने एक बहुत बड़ा क़दम उठाने की प्लानिंग की। 1784 में आदिवासियों ने अंग्रेज़ों के भागलपुर मुख्यालय पर हमला कर दिया। घमासान लड़ाई हुई।
ज़हरीली तीर से क्लेव्हलँड को मारा
तिलका मांझी ने अपने धुनष से एक ज़हरीली तीर छोड़ी और वो क्लेव्हलँड को लगी। वो ज़ख़्मी हो गया और कुछ दिनों बाद मारा गया।
एक आदिवासी के हाथों क्लेव्हलँड की मौत अंग्रेज़ों के गाल पर ज़ोरदार तमाचा जैसा था। कंपनी सरकार ने लेफ्टिनेंट जनरल आयर कूटे को तिलका को ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ने के लिये भेजा।
किसी ने दे दी थी आदिवासी नेता की ख़बर
कहा जाता है कि किसी घर के भेदी ने तिलका मांझी का पता अंग्रेज़ों को बता दिया। अंग्रेज़ों ने बीच रात में तिलका और अन्य आदिवासियों पर हमला किया। तिलका जैसे-तैसे बच गये लेकिन उनके कई कॉमरेड शहीद हो गये।
13 जनवरी 1785 को 35 वर्षीय वीर तिलका मांझी को दे दी फांसी
अंग्रेज़ों से बच कर तिलका मांझी अपने गृह ज़िले, सुलतानगंज के जंगलों में जा छिपे। यहां से उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ गुरैल्ला युद्ध छेड़ दिया। अंग्रेज़ तिलका तक पहुंचने वाले हर सप्लाई रूट को बंद करने में क़ामयाब हो गये। तिलका और उनके सैनिकों को अंग्रेज़ों से आमने-सामने लड़ना पड़ा।
कहते हैं 12 जनवरी, 1785 के दिन तिलका मांझी को अंग्रेज़ों ने पकड़ लिया।
तिलका मांझी को अंग्रेज़ों ने घोड़ों से बांधकर भागलपुर तक घसीटा। कहते हैं तिलका मांझी इस यातना के बाद जीवित थे। 13 जनवरी, 1785 को 35 वर्षीय वीर को फांसी दे दी गई।
इतिहास के किताबों में ग़ुम है तिलका मांझी
तिलका मांझी इतिहास की किताबों से भले ही ग़ुम हैं लेकिन आदिवासी समाज में आज भी क़ायम हैं। आदिवासी समुदाय में उन पर कहानियां कही जाती हैं, संथाल उन पर गीत गाते हैं। 1831 का सिंगभूम विद्रोह, 1855 का संथाल विद्रोह सब तिलका की जलाई मशाल का ही असर है।
आज भी अनेक गीतों तथा कविताओं में तिलका मांझी को विभिन्न रूपों में याद किया जाता है-
तुम पर कोडों की बरसात हुई
तुम घोड़ों में बांधकर घसीटे गए
फिर भी तुम्हें मारा नहीं जा सका
फिर भी डरते रहे ज़मींदार और अंग्रेज़
तुम्हारी तिलका (गुस्सैल) आंखों से
मर कर भी तुम मारे नहीं जा सके
तुम आधुनिक भारत के पहले विद्रोही थे
1991 में बिहार सरकार ने भागलपुर यूनिवर्सिटी का नाम बदलकर तिलका मांझी यूनिवर्सिटी रखा और उन्हें सम्मान दिया। इसके साथ ही जहां उन्हें फांसी हुई थी उस स्थान पर एक स्मारक बनाया गया।
भारत माँ के इस सपूत को सादर नमन एवं सेवा जोहार! 💐💐