बुधवार, २९ जून, २०२२

30 जून (संताल हुल) दिवस पर विशेष...

अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ विद्रोह की जब चर्चा होती है, तो विद्रोह की पहली लड़ाई 1769 में झारखंड के रघुनाथ महतो के नेतृत्व में ‘चुहाड़ विद्रोह’ से शुरू हुआ। विद्रोह, 1771 में तिलका मांझी का ‘हूल’ से सफर तय करता हुआ, 1820-21 का पोटो हो के नेतृत्व में ‘हो विद्रोह’, 1831-32 में बुधु भगत, जोआ भगत और मदारा महतो के नेतृत्व में ‘कोल विद्रोह’, 1855 में सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में ‘संताल विद्रोह’ और 1895 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए ‘उलगुलान’ ने अंग्रजों की नींद उड़ा दी थी।

इन विद्रोहों में जून का महीना झारखंड के लिए विशेष महत्व इसलिए रखता है क्योंकि इसी महीने के 30 जून को ‘संताल विद्रोह’ व ”हूल दिवस” के रूप में याद किया जाता है। जबकि 9 जून को पूरा झारखंड बिरसा मुंडा की शहादत को याद करता है। क्योंकि अंग्रेजों ने ‘उलगुलान’ के नायक बिरसा मुंडा को धीमा जहर देकर जेल में ही मार दिया था। तब उनकी उम्र केवल 25 वर्ष की थी। वहीं 30 जून 1855 को सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में अंग्रेजों और महाजनों के खिलाफ हूल (विद्रोह) हुआ था, जिसमें करीब 20 हजार लोग मारे गए थे।

वहीं ‘चुहाड़ विद्रोह’ के नायक रघुनाथ महतो का जन्म 21मार्च, 1738 को तत्कालीन बंगाल के छोटानागपुर के जंगलमहल (मानभूम) जिला अंतर्गत नीमडीह प्रखंड के एक छोटे से गांव घुंटियाडीह में हुआ था।

बता दें कि 1769 में रघुनाथ महतो के नेतृत्व में आदिवासियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जंगल, जमीन के बचाव एवं नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए विद्रोह किया, जिसे चुहाड़ विद्रोह कहा गया। यह विद्रोह छोटानागपुर के जंगलमहल (मानभूम) के क्षेत्र में 1769 से 1805 तक चला।

यह बताना लजिमी होगा कि वर्तमान सरायकेला खरसावां जिले का चांडिल इलाके के अंतर्गत नीमडीह प्रखंड में स्थित रघुनाथ महतो का गाव घुंटियाडीह आज भी है, लेकिन रघुनाथ महतो के वंशज का कोई पता नहीं है। शायद रघुनाथ महतो पर जितना काम होना चाहिए था, नहीं हो पाया है।

जबकि 1750 में जन्मे तिलका मांझी ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध 1771 से 1784 तक लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासक की नींद उड़ाए रखा।


बताते चलें कि दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है, और भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में विद्रोही होने का श्रेय तिलका मांझी को जाता है, जिसने तत्कालीन राजमहल क्षेत्र के जंगल व पहाड़ों पर ब्रितानी हुकूमत से लोहा लिया। सबसे दुखद यह है कि तिलका मांझी के वंशज का भी आज कोई अता-पता नहीं है। जबकि तिलका मांझी के नाम पर बिहार के भागलपुर में ‘तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय भागलपुर’ है। जबकि सिद्धू-कान्हू और बिरसा मुंडा के वंशज की जानकारी है।

वहीं ‘हो विद्रोह’ के नायक पोटो हो और ‘कोल विद्रोह’ के बुधु भगत के वंशज का भी पता नहीं है। बुधु भगत के वंशज का पता इसलिए नहीं है क्योंकि इनके परिवार के 100 लोगों की हत्या अंग्रेजी हुकूमत ने कर दी थी।

उल्लेखनीय है कि 30 जून, 1855 को संताल आदिवासियों ने सिद्धू, कान्हू, चांद, भैरव और उनकी बहन फूलो, झानो के नेतृत्व में साहेबगंज जिले के भोगनाडीह में 400 गांव के 40,000 आदिवासियों ने अंग्रेजों को मालगुजारी देने से साफ इंकार कर दिया था। इस दौरान सिद्धू ने कहा था- अब समय आ गया है फिरंगियों को खदेड़ने का। इसके लिए “करो या मरो, अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो” का नारा दिया गया था। अंग्रेजों ने तुरंत इन चार भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश जारी किया। गिरफ्तार करने आये दारोगा की संताल आंदोलनकारियों ने गर्दन काटकर हत्या कर दी। इसके बाद संताल परगना के सरकारी अधिकारियों में आतंक छा गया।

बताया जाता है जब कभी भी आदिवासी समाज की परंपरा, संस्कृति और उनके जल, जंगल, जमीन को विघटित करने का प्रयास किया गया है, प्रतिरोध की चिंगारी भड़क उठी। 30 जून, 1855 का संताल विद्रोह इसी कड़ी का एक हिस्सा है। महाजनों, जमींदारों और अंग्रेजी शासन द्वारा जब आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करने का प्रयास किया गया तब उनके खिलाफ आदिवासियों का गुस्सा इतना परवान चढ़ा कि इस लड़ाई में सिद्धू, कान्हू, चांद, भैरव और उनकी बहन फूलो, झानो सहित लगभग 20 हज़ार संतालों ने जल, जंगल, जमीन की हिफाजत के लिए अपनी कुर्बानी दे दी। इसके पूर्व गोड्डा सब-डिवीजन के सुंदर पहाड़ी प्रखंड की बारीखटंगा गांव का बाजला नामक संताल युवक की विद्रोह के आरोप में अंग्रेजी शासन द्वारा हत्या कर दी गई थी। अंग्रेज इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर ने अपनी किताब ‘द एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’ में लिखा है कि अंग्रेज का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था जो आदिवासियों के इस बलिदान को लेकर शर्मिंदा न हुआ हो।

कहा जाता है कि अपने ही कुछ विश्वस्त साथियों ने विश्वासघात किया और सिद्धू और कान्हू को पकड़वाया। तब अंग्रेजी हुकूमत ने सिद्धू और कान्हू को भोगनाडीह गांव में सबके सामने एक पेड़ पर टांगकर फांसी दे दी।

भले ही ”हूल दिवस” (संताल दिवस) को सरकारी या कुछ सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों द्वारा एक औपचारिकता के तौर पर याद किया हो, लेकिन झारखंड के आम आदिवासी के बीच यह हूल दिवस औपचारिकता से आज भी दूर है।

संकलन: सुशिल म. कुवर

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